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________________ क्षपणासार [१६९ गाथा २०१.२०२] एकभाग लब्ध आवे उतना है और वह मोहनीयकर्मके स्थिति सत्कर्मप्रमाण निषेकोंमें अपकर्षणभागहारका भाग देनेपर जो लब्ध प्राबे तत्प्रमाण है । पुनः उसके भी असंख्यातवेंभागप्रमाण दृश्यको हो नीचे गुणश्रेणिमैं सिंचित करता है । शेष असंख्यातबहुभागको इससमयके गुणश्रेणीशोषसे उपरिम गोपुच्छाओंमें आगममें प्ररूपितविधिके अनुसार सिंचित करता है। इसकारणसे पहले के गुणश्रेणिशीर्षसे इससमयका गुणश्रेणिशीर्ष असंख्यातगुणा नहीं हुआ, किन्तु दृश्यमानद्रव्य विशेषाधिक ही है ऐसा निश्चय करना चाहिए । यहांपर अवस्थित गुणधेणिआयाम होने से प्रतिसमय ऊपर-ऊपरका निषेक गुणश्रेणिशीर्ण होता जाता है'। 'सुझुमद्धादो अहिया गुणसेढी अंतरं तु तत्तो दु । पढमे खंडं पढमे संतो मोहस्स संखगुणिदकमा ॥२०१।।५६२।। अर्थ--सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण कालसे उसीके असंख्यातधेभागसे अधिक सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानके प्रथमसमय में मोहनीयकर्मका गुणश्रेणीमायाम है, उससे अन्तरायाम संख्यात गुणा, उससे सूक्ष्म साम्परायगुणस्थानके सोहनीयकर्मका प्रथमस्थितिकाण्डकायाम संख्यात गुणा तथा उससे सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानके प्रथमसमय में मोहनी यकर्मका स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा है। सर्वत्र गुणकार तत्प्रायोग्य संख्यातगुणा है । 'एदेणप्पाबहुगविधाणेण विदीयखंडयादीसु । गुणसेटिमुज्झियेया गोपुच्छा होदि सुहुमम्हि ।।२०२।।५६३॥ अर्थ---इस अल्पबहत्व विधानके द्वारा साम्परायगुणस्थानमें हितोयस्थितिकाण्डकोंके काल में गुरगश्रेरिणको छोड़कर उसके ऊपरवर्ती सर्वस्थितिका एक गोपुच्छ होता है । विशेषार्थ-यहां अंतरायामसे प्रथम स्थितिकाण्डकायाम संख्यात गुणा कहा है, उससे प्रथम स्थितिकाण्डककी चरमफालिके द्रव्यमें अन्तरायाममें देनेयोग्य गोपुच्छरूप १. जयधवल पु० १३ पृष्ठ ६८ । २. क. पा. सुत्त पृष्ठ ८७१ सूत्र १३३० से १३३५ । धवल पु० ६ पृष्ठ ४०५ । ३. जय ५० मूल पृष्ठ २२१४०२२१५ । ४. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८७१ सूत्र १३२८ । घ० पु० ६ पृष्ट ४०५ ।
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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