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क्षपणासार
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[गाया १९९-२०० काण्डकों में जबतक चरमफालि प्राप्त नहीं होती तबतक जो अपकष्टद्रव्य है वह सम्पूर्णद्रव्यका दासंख्यातवें भागमात्र तथा अन्तिमफालिका द्रव्य सर्बद्रव्यके संख्यातवें भागप्रमाण है'।
'अंतरपढमठिदित्ति य असंखगुणिदक्कमेण दिस्सदि हु। हीणं तु मोहविदियट्टिदिखंडयदो दुघादोत्ति ॥१६६॥५६॥
अर्थ-मोहनीयकर्मका प्रथमस्थितिकाण्ड क निर्लेपित होनेपर द्वितीयस्थितिकादशगतसे तिननाममाण्डा माता दृश्यमान द्रव्य गुणथेरिपके प्रथमनिषेकमें स्तोक है, उससे गुणश्रेणि शीर्षके ऊपरवर्ती अन्तरायामको प्रथमस्थितिपर्यन्त असंख्यातगुणे क्रमसहित है और उसके ऊपर चरमसमयपर्यन्त विशेष घटते हुए क्रमसे दृश्यमान द्रव्य है, पयोंकि प्रथमकाण्डकको धरमफालिका पतनस मय में गुणश्रेणीसे पर सर्वस्थितिका एक गोपुच्छ होता है।
पडमगुणसे डिसीसं पुबिल्लादो असंखसंगुणियं । उरिमसमये दिस्सं विसेसअहियं हवे सीसे ॥२००॥५६१॥
अर्थ—सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानसम्बन्धी प्रथमस्थितिकाण्डकके निर्लेपित होने के पश्चात् अर्थात् द्वितीयस्थितिकाण्डक के प्रथमसमय में गुणवेगिशीर्ष पूर्व सनदके गुणश्रेणोशीर्षसे असंख्यातगुणा दिखाई देता है, किन्तु आगे द्वितीयादि समयों में गुणश्रेणिशोषं पूर्व समयवर्ती गुणश्रेणिशीर्षसे अधिक दिखाई देता है।
विशेषार्थ--द्वितीयस्थितिकाण्ड क में अपकर्षितकरके ग्रहण किया गया समस्तद्रव्य भी मिलकर एकस्थितिके द्रव्यको पल्योपमके असंख्यातवेंभागसे भाजितकरके जो
१. जयघवल मूल पृष्ठ २२१३ पं. ८-१०। २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८७१ सूत्र १३२६-५७; धवल पु. ६ पृष्ठ ४०६ । ३. जयधवल मूल पृष्ठ २२१४ । ४. "मुणसे ढि दिस्समाण दव्यमेत्तो पाए असंखेज्जगुणं णं होदि विसेसायि चेव होदि । तत्थ कारण
परूवरण। जहा दसएमोहक्खवणाए सम्मत्तस्स अट्ट वस्सट्टि सतकम्माको उपरि मागिदा तहा चेव मग्गिदूण गेण्हियध्वा" (जयधवल मूल पृष्ठ २२१५)