________________
पृष्ठ पंक्ति
प्रशुद्ध २६८ २७ परमगुरुसम्पदा
परमगुरुसम्प्रदाय १९९ ३ वीयंपरिणामों में
वीतराग परिणामों में १६५ ३ होने पर भी अन्तर्मुहूर्त
होने पर भी प्रायु के अन्त मुहूर्त २०० ११ संख्यातवें
असंख्यात २०० २७ होता है । कार्मण
होता है । क्योंकि कार्मण २०१ १० जाते हैं । मूल
जाते हैं । क्योंकि वहां मूल २०१ असम्भव है क्योंकि
असम्भव है और क्योंकि २०२ ३ क्षपस के उपदेश में यह २०३६ लोकव्यापी, पांचवें समय में संकोच. लोकव्यापी, फिर क्रमशः पांचवें समय में लोकपूरण क्रिया
की संकोचक्रिया २०३ ७
उसका संकोच होकर पाठवें समय में आठवें समय में दण्ड का संकोच हो जाता है। दण्ड हो जाता है। काल में पौर
बाद २०३ सण्णिविसुहमारिण
सपिणविसुहुमरिग २०६ १३ व्यतीत कर
तक २०७ ३ असंख्यातवें भागरूप परिणमाकर भसंस्थातवें भाग प्रमाण अविभागी प्रतिच्छेद अपूर्व
स्पर्षकों की चरम वर्गणा में होते हैं । अर्थात् पूर्व स्पर्षकों में से जीय प्रदेशों का अपकर्षण कर उनको पूर्व स्पर्धकों की प्रादि वर्गणा के प्रविभागी प्रतिच्छेदों
के प्रसंख्यातवें भाग रूप परिणमाकर २०८ १६ एता ख्यातगुणे क्रम से
प्रलिसमय असंख्यातगुणे क्रम से २११ १२ परिणमन
परिणत २११ २३-२८ अथवा द्वितीय उपदेशानुसार....... अथवा प्रथम समय में स्तोक कृष्टियों का वेदन करता
है; क्योंकि प्रधस्तन और उपरिम प्रसंख्यातवें भाग
प्रमाण ही कृष्टियां प्रथम समय में विनाश को प्राप्त द्वितीय समय में नष्ट होती हैं। होती हुई प्रधान रूप से विवक्षित हैं । दूसरे समय में
असंख्यातगुणी कृषिटयों का वेदन करता है। क्योंकि प्रथम समय में विनाश को प्राप्त होने वाली कृष्टियों से दूसरे समय में, अधस्तन और उपरिम, प्रसंस्पातवें भाग से सम्बन्ध रखने वाली, प्रसंख्यातगुणी कृष्टियां, विनाश को प्राप्त होती है। यह उक्त कथन
का तात्पर्य है। २१४ १४-१५ गुणश्रेणिशीर्ष की जघन्य स्थिति स्थितिकाण्डक की जघन्यस्थिति