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________________ पृष्ठ पंक्ति १८० २६ प्रशुद्ध अश्च कर्णकरणकाल, कृष्टिकरणकाल 2 सेक संडेवक कर्मप्रकृतियां सत्त्व से कर्म प्रकृतियां उदय और सत्व से निगल निर्मल अन्तरित अन्तरित कहलाता है। विम्यं च उकारण विग्धचउकाण स्तविक स्तिक १६९ २३ केवलज्ञान प्रविनश्वरता को केवलज्ञान की प्रविनश्वरता को प्रमेय प्रानन्त्य प्रमेय में प्रानन्त्य अतः उनके प्रत: उनको प्रानन्त्यपना प्रानन्त्य केवलज्ञान उपचारमात्र से केवलज्ञान में उपचारमात्र से पावरक प्रानारक १६१ २१ अनवस्था भनषस्थान १६३ ५ अभाव और . धभाव है और १९३ १९ केवलज्ञानरूपी जिसका केवलज्ञानरूपी । २२-२३ और घातिया कर्मों को जीत लेने कहा जाता है अर्थात् क्षय कर देने से जिन कहे जाते हैं सकता सकते पादि व्यापार स्वाभाविक व्यापार मादि स्वाभाविक १६५ पादाम्बुजै पादाम्बुज: बंधादि बंधदि पाविसिय पविसिम १९७ २१ प्रवशिष्टकाल; और प्रयोग अवधिपष्ट काल; अयोगी का सर्वकाल और प्रयोग सर्वकालका संख्यातवांभाग इंन दोनोंको काल का संख्यातवां भाग इनको १९८७ प्रात्मप्रदेशों को कपाटरूप प्रात्मप्रदेशों को प्रतररूप करता है। द्वितीयसमय में प्रतर समेट कर भात्मप्रदेशों को कपाटरूप १९८ २२-२३ गुणरिणशीर्ष से उपरिम गुणश्रेणिशीर्ष से वर्तमान गुणोगिशीर्ष नीचे है। किन्तु पूर्व की अपेक्षा असंख्यातगुणे प्रदेशाग्र का विन्यास करता है। यह गुणश्रेणी के ११ स्थानों की प्ररूपणा दाले सूत्र से सिद्ध है 1 गुणवे रिण शीर्ष से उपरिम
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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