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लब्धिसार.
. [ गाधार१४७। विशेषार्थ-इसप्रकार अनिवत्तिकरणके चरमसमयमें सम्यक्त्व मोहनीयके अन्तिमकाण्डकको अन्तिमफालिके द्रव्यका अधस्तनवर्ती निषेकों में निक्षेपरम करने के पश्चात् अनन्तरवर्ती समयसे लेकर अनिवृत्तिकरणकालके संख्यातवें भागप्रमाण अन्तर्मुहूर्तकाल पर्यन्त पुरातन गलितावशेष गुणश्रेरिण पायामके शीर्ष को संख्यातका भाग देने पर बहुभागप्रमाण अन्तमुहर्त काल पर्यन्त कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि होता है, क्योंकि दर्शनमोहनीयकी क्षपणा मोम स्थिति का इनादि कार्य सो अमितिकरणकेर चरम समयमें ही समाप्त हो गया इस लिये किया है करने योग्य कार्य जिसने ऐसे कृलकृत्य नामको प्राप्त जीव भुज्यमान प्रायुके नाशसे मरण को प्राप्त होवे तो सम्यक्त्व ग्रहणसे पहले जो आयु बांधी थी उसके वशसे चारों गतियोंमें उत्पन्न होता है । वहां कृतकृत्यवेदकके कालके एक-एक अन्तर्मुहूर्तप्रमाण चार भाग करता है, उनमें से प्रथम-- भागमें मरे तो देवों में ही, द्वितीय भाग में मरे तो देव या मनुष्यों में, तृतीयभाग में मरे तो देव-मनुप्य या तिर्यंचों में तथा चतुर्थभागमें मरे तो चारों गतियों में उत्पन्न होता है, क्योंकि वहां उन ही में उत्पन्न होने योग्य परिणाम होते हैं । इस क्रम द्वारा कृतकृत्य बेदककी उत्पत्ति जानना चाहिए।
आगे अधःकरणके प्रथमसमयसे लेकर कृतकृत्यवेदककालके चरम समयपर्यन्त लेश्या परिवर्तन होने अथवा न होने सम्बन्धों कथन करते हैं
करणपढमादु जावय किदुकिच्चुरि मुहत्तअंतोत्ति। ण सुहाण परावती सा धि कोदावरं तु वरि ।।१४७।।
अर्थ-अधःकरण से लेकर कृतकृत्यवेदक के ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल तक शुभ लेश्या को बदलता नहीं अर्थात् शुभ लेश्यामें अवस्थित रहता है । अन्तमुहर्त पश्चात् यदि अन्य लेश्या रूप परिणमता है तो जघन्य कापोतलेश्याका अतिक्रम नहीं करता है ।
विशेषार्थ-अधःप्रवृत्तकरणमें विशुद्धिको पूर कर तेज (पीत), पद्म और शुक्ल इनमें से किसी एक शुभ लेश्या में दर्शनमोहको क्षपणा का प्रारम्भकर पुनः जब जाकर यह जीव कृतकृत्य होता है तब तक उसके पूर्वमें प्रारम्भ की गई वहीं लेश्या पाई जाती है तथा पुनः उसके आगे भी जब तक अन्तर्मुहूर्तकाल नहीं गया तब तक प्रारब्ध उक्त लेश्याको छोड़ कर अन्य लेश्यारूप परिवर्तन नहीं करता है, क्योंकि कृतकृत्य भावको प्राप्त होनेवाले जीवके पूर्व में प्रारब्ध हुई लेश्या का उत्कृष्ट अंश होता है ।