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गाथा-१४८ ] लब्धिसार
[ १३३ पुनः उसके मध्यम अंशको प्राप्त कर और अन्तर्मुहूर्त कालतक उस रूप रहकर जघन्य अंशमें भी जब अन्तर्मुहूर्त काल तक नहीं रह लेता तब तक अन्य लेश्यारूप परिवर्तन का होना सम्भव नहीं है । . . .
कुछ प्राचार्य इसप्रकार भी अर्थ करते हैं कि जिसप्रकार अधःप्रवृत्तकरणके प्रारम्भमें पूर्वोक्त विधिसे तेज, पद्म और शुक्ललेश्यामें से अन्यतर लेश्या के साथ क्षपणक्रियाका प्रारम्भ करने वाला जो जीव पुनः दर्शनमोहकी क्षपणारूप क्रियाकी समाप्ति होने पर कृतकृत्यरूप से परिणमन करता है उसके नियमसे शुक्ललेश्याके होनेमें विरोध नहीं है । पुनः उसका. विनाश होनेसे आगममें बतलाई गई विधिके अनुसार यदि तेज और पद्मलेश्यारूपसे परिणत होता है तो कृतकृत्य होने के बाद जब तक अन्तर्मुहूर्तकाल नहीं जाता तब तक वह उक्त लेश्यारूपसे परिवर्तन नहीं करता । अन्तर्मुहुर्तकाल के पश्चात् कृतकृत्य सम्यग्दृष्टि जीव पहलेकी अवस्थित लेश्याका परित्यागकर जघन्य कापोत, तेज, पद्म और शुक्ल इनमें से अन्यतर लेश्यारूप से परिणमता है यह उक्त कथन का तात्पर्य है । इस वचन द्वारा कृष्ण और नीललेश्याका यहां अत्यन्त प्रभाव कहा गया जानना चाहिये, क्योंकि अत्यन्त संक्लिष्ट हुआ भी कृतकृत्य जीव अपने कालके भीतर जघन्य कापोत लेश्याका अतिक्रम नहीं करता है ।
अब कृतकृत्यवेदक काल में पायी जाने वाली क्रिया विशेष को कहते हैंभणुसमओ बद्दणयं कदकिज्जतोत्ति पुवकिरियादो। वददि उदीरणं वा असंखसमयप्पबद्धाणं ॥१४॥
मर्थ-पूर्व प्रयोग वश कृतकृत्यवेदक कालके अन्त तक प्रतिसमय सम्यक्त्वके अनुभागका अनन्तगुरपी हानिरूप से अपवर्तन होता है तथा कृतकृत्य वेदककालमें एक समय अधिक एक आवलिकाल शेष रहने तक असंख्यात समयप्रबद्धोंकी उदीरणा भी होती है।
_ विशेषार्थ-अनिवृत्तिकरणकालका संख्यातवां भाग अवशिष्ट रहने पर जिस प्रकार दर्शनमोहनीयके अनुभागकाण्डकघात को नष्टकर प्रतिसमय अनन्तगुणे घटते क्रम सहित अनुभागका अपवर्तन कहा था उसीप्रकार इस कृतकृत्यवेदककालके अन्तिम समयपर्यन्त पाया जाता है, क्योंकि करण परिणामों की विशुद्धता के संस्कार का यहां अवशेष रहना सम्भव है । उस कृतकृत्यवेदककालमें जबतक एक समय अधिक