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लब्धिसार
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[ गाथा १४६-१५१ उच्छिष्टावलि अवशेष रहती है तबतक प्रतिसमय असंख्यातगुरणे क्रम सहित असंख्यात समय प्रबद्धोंकी उदीरणा पाई जाती है ।
उदयवहिं मोक्कट्टिय असंखगुणसमुदयमावलिम्हि खिवे । उरि विसेसहीणं कदकिज्जो जाव अइत्थवणं ॥१४६ । जदि किसजुगो विधिसहिदो अहो वि पडिसमयं ।। दव्यमसंखेज्जगुणं प्रोक्कट्टदि णत्थि गुणसेडी ॥१५०॥ जदि वि असंखेज्जाणं समयपबद्धाणुदीरणासोवि । उदयगुणसे दिठिदिए असंखभागो हु पडिसमयं ॥१५१॥
अर्थ-उदयावलिसे बाहरके द्रव्यको अपकर्षित करके उदयावलिमें असंख्यातगणे क्रमसे दिया जाता है उससे ऊपर कृतकृत्यवेदककाल में अतिस्थापना शेष रहने तक विशेषहीन क्रमसे द्रव्य दिया जाता है ।।१४६।।
__ कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि चाहे संक्लेशको प्राप्त हो चाहे विशुद्धिको तो भी उसके एक समय अधिक यापलिकाल शेष रहने तक प्रतिसमय असंख्यातगुणे द्रव्यका अपकर्षण होता है, किन्तु गुणश्रेरिण नहीं होती ।।१५।।
यद्यपि असंख्यात समयप्रबद्धोंकी उदीरणा होती है तथापि प्रतिसमय उदय द्रव्यसे उत्कृष्ट उदीरणा द्रव्य असंख्यातवेंभाग मात्र है ।।१५१॥
विशेषार्थ- कृतकृत्यवेदककालप्रमाण सम्यक्त्वमोहनीयके निषेकों का द्रव्य किचित ऊन द्वयर्धगुरणहानि गुणित समयप्रबद्ध प्रमाण है उसको अपकर्षणभागहार का भाग देकर उसमें से एकभागप्रमाण द्रव्यको उदयावलिसे बाहर उपरितनवर्ती निषेकों से नहाणकरके उसको पल्यके असंख्यातवें भागका भाग देकर उसमें से एक भाग तो उदयावलिमें "प्रक्षेपयोगोद्धत" इत्यादि विधानके द्वारा प्रथम समय से लेकर अन्तिम निषेकपर्यन्त असंख्यातगुरणे क्रमसे दिया जाता है । तथा अवशिष्ट बहुभाग प्रमाण द्रव्य उस उदयावलिसे उपरितनवर्ती अवशिष्ट अन्तर्मुहूर्तप्रमाण उपरितन स्थिति के अन्तमें एकसमय अधिक प्रतिस्थापनावलि छोड़ कर सर्वनिषेकोंमें “प्रद्धाणेण सव्वधणे" इत्यादि विधान द्वारा विशेष हीन क्रमसे निक्षिप्त करता है । इसप्रकार उपरितन स्थितिका जो द्रव्य उदयाबलिमें दिया जाता है उसको उदीरणा कहते हैं।