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गाथा १४५-१४६ ] . लब्धिसार
[ १३१ द्विचरम स्थितिमें जो प्रदेशपुञ्ज निक्षिप्त होता है उसे देखते हुए गुणश्रेरिण की अन्तिम अग्र स्थितिमें निक्षिप्त होने वाले द्रव्यका जो गुणकार है वह न तो पल्योपम के प्रथम वर्गमूलका असंख्यातवां भाग है और न अन्य ही है, किन्तु पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण है, क्योंकि नीचे निक्षिप्त किया गया द्रव्य अन्तिम फालिके द्रव्य को पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलोंसे भाजितकर जो एक भाग लब्ध प्रावे तत्प्रमाण स्वीकार किया गया है । इस कथन द्वारा अधस्तन समस्त गुणाकारों को पोपमके तत्प्रायोग्य असंख्यातवेभागप्रमाण सूचित किया गया जानना चाहिए, क्योंकि उन गुणकारों को पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण होनेपर कर्मस्थितिके भीतर संचित हुए द्रव्यके अंगुलके असंख्यातवें भाग समय प्रबद्ध प्रमाण होनेका अतिप्रसङ्ग प्राप्त होता है । इसलिये अन्तिम गुणकार ही पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण है, किन्तु अधस्तन समस्त गुणकार पल्योपमके तत्प्रायोग्य असंख्यातवें भागप्रमाण है यह सिद्ध हुआ'।
___ अब दो गाथाओंमें कृतकृत्यवेवफसम्यक्त्व के प्रारम्भसमयके निवेशपूर्वक उसको अवस्था विशेषको प्ररुपणा करते हैं
चरिमे कालिं दिगणे कदकरणिज्जेत्ति वेदगो होदि। सो वा मरणं पावइ चउगइगमणं च तहाणे ॥१४५॥ देवेसु देवमणुए सुरणरतिरिए चउम्गईसुपि । कद करणिज्जुप्पत्ती कमेण अंतोमुहुत्तेण ॥१४६।।।।
अर्थ- अन्तिमफालि द्रव्य के दिये जाने पर कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि होता है। वहां मरण होवे तो चारों गतियों में जा सकता है । यदि अन्तर्मुहूर्त प्रमाण प्रथम भाग में मरे तो देवगतिमें ही उत्पन्न होता है। तत्प्रमाण दूसरे भागमें मरण हो तो देव या मनुष्यों में उत्पन्न होता है। तत्प्रमाण तृतीय भागमें मरण हो तो देव, मनुष्य या तिर्यंच (इन तीनों में से किसी भी गति) में उत्पन्न होता है । तत्प्रमाण चतुर्थभागमें मरण हो तो चारों गतियोंमें उत्पन्न हो सकता है ।
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क. पा. सुत्त. पृ. ६५६ चूणिसूत्र ७६-८०; ज. ध. पु. १३ पृ. ७८ प्रादि ।