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द्रश्य संग्रह में भी कहा है
शुद्ध निश्चयनय से जीव के बन्ध ही नहीं है तथा बन्धपूर्वक होने से मोक्ष भी नहीं है ।"
जब निश्चयनय में बन्ध व मोक्ष ही नहीं तो मोक्षमार्ग कैसे सम्भव है अर्थात् निश्चयनय से मोक्षमार्ग भी नहीं है । बन्धपूर्वक मोक्ष और मोक्षमार्ग के उपदेश के लिए ही पट्खण्डागम और कषायपाहुड़ ग्रन्थों की रचना हुई । यद्यपि ये दोनों ग्रन्थ करणानुयोग के नाम से प्रसिद्ध हैं, क्योंकि इनमें करण अर्थात् श्रात्म-परिणामों की तरतमता का सूक्ष्म दृष्टि कथन पाया जाता है तथापि इन दोनों ग्रन्थों में आत्म-विषयक कथन होने से वास्तव में ये अध्यात्म ग्रन्थ हैं |
पूर्व
कर्मोदय से जीव के कषायभाव होते हैं और इन कषाय भावों से जीव के कर्मबन्ध होता है । बाघ द्रव्य क्षेत्र काल भव-भाव धनुकूल मिलने पर द्रव्य कर्म उदय में (स्वमुख से ) प्रकर अपना फल देता है | यदि वाघ द्रव्य क्षेत्र काल भव-भाव अनुकूल नहीं मिलता तो कर्म (स्वमुख से ) उदय में न प्राकर अपना फल नहीं देता। जिन बाह्य द्रव्यादि के मिलने पर कषायोदय हो जावे ऐसे ऋण आदि के संयोग से अपने की यही हमारा पुरुषार्थ हो सकता है । जैसेअणुव्रत ग्रहण द्वारा देश संयम हो जाने पर अप्रत्यारूपान क्रोध आदि कषाय तथा भानादेय, दुभंग, श्रयशःकीति आदि कर्मोदय रुक जाता है । चरणानुयोग की पद्धति के अनुसार हम स्वयं को उन द्रव्य क्षेत्र काल और भाव से बचा सकते हैं जिनके मिलने पर कषायादि उदय में आते हैं ।
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प्रस्तुत ग्रन्थ का नामकररण
प्रथमोपशम सम्यक्त्व उत्पन्न होने से पूर्व पांच लब्धियां होती हैं तथा श्रनन्तानुबन्धी की विसंयोजना, द्वितीयोपशम सम्यक्त्व, क्षाधिक सम्यक्त्व, उपशम चारित्र व क्षायिक चारित्र से पूर्व तीनों करलब्धि होती हैं। देश संयम श्रीर सकलसंयम से पूर्व प्रधःकरण और अपूर्वकरण ये दो करणलब्धियां होती हैं । इन लब्धियों का कथन प्रस्तुत ग्रन्थ में विस्तार पूर्वक होने से इस ग्रन्थ का लब्धिसार गौण्य पद नाम है तथा चारित्र मोह को क्षपणा का कथन होने से अथवा भाठों कर्मों की क्षपणा का कथन होने से दूसरे ग्रन्थ का क्षपणासार सार्थक नाम है । इस प्रकार लब्धिसार क्षपणासार यह नामकरण विषय विवेचन की प्रधानता से किया गया है।
प्रत्यकर्ता
विसार क्षपणासार ग्रन्थ के कर्त्ता श्रीमन्नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती हैं। मापने पुष्पदन्तभूतवलि श्राचार्य द्वारा विरचित षट्खंडागम सूत्रों का गम्भीर मनन पूर्वक पारायण किया था । इसी कारण आपको सिद्धान्त चक्रवर्ती उपाधि प्राप्त थी । श्रापने स्वयं भी गो क. की गाथा ३६७ में सूचित किया है कि जिस प्रकार भरतक्षेत्र के छह खंडों को चक्रवर्ती निविघ्नतया जीतता है उसी प्रकार प्रज्ञा रूपी चक्र के द्वारा मेरे द्वारा भी छह खंड ( प्रथम सिद्धान्त ग्रन्थ - षट्खण्डागम) निर्विघ्नतथा साधित किये गये हैं अर्थात् जीवस्थान, खुद्दाबन्ध, बन्धस्वामित्व, वेदनाखण्ड, वर्गरगाखण्ड और
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धश्च शुद्ध निश्चयनयेन माहित तथा अन्यपूर्वकमोशोsपि । गा. ५७ को टोकर 'एवं पविसय' 'पथदाए प्रज्झप्पविज्जाए व पु. १३ पृ. १३६ ।
कर्मणां ज्ञानावरणादीनां
जह चक्के य चक्की छ तह महलके
क्षेत्रकाल भवभावप्रत्ययफलानु भषमं । सर्वार्थसिद्धि ९ / २६ । साहियं श्राविवेश । साहियं सम्मं ॥
मया छपखंड