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________________ ६२ ] लब्धिसार । गाथा १०७ कहा गया है कि प्रवचनमें उपदिष्ट अर्थ का प्राज्ञा और अधिगम से विपरीतता के बिना श्रद्धान करना सम्यग्दृष्टि का लक्षण है' | अब मिषप्रकृतिके उवयका कार्य कहते हैंमिस्सुदये सम्मिस्तं दहिगुड मिस्सं व तच्चमियरेण । सद्दहदि एक्कसमये मरणे मिच्छो व अयदो वा ॥१०७॥ अर्थ-मिश्रप्रकृति के उदय में दधि और गुड़ के मिश्रित स्वादके समान एक समयमें सम्यक्त्व व मिथ्यात्व मिश्रित तत्त्व का इतर जाति (जात्यन्तर ) रूप श्रद्धान होता है । मरणकाल में मिथ्यात्व या असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान होता है । विशेषार्थ-जिसप्रकार दही और गुड़ परस्पर इसप्रकार मिल जाते हैं कि उनका पृथक्-पृथक् अनुभव नहीं हो सकता, किन्तु खट्टा और मीठा मिश्रित रसास्वाद का अनुभव होता है उसी प्रकार एक ही काल में सम्यक्त्व और मिथ्यात्वरूप मिले हुए परिणाम मिश्र ( सम्यग्मिथ्यात्व ) प्रकृति के उदय से होते हैं । प्रभेद विवक्षा में उसके जात्यन्तर भाव कहा है ( अभेदविवखाए जच्चंतरत) किन्तु भेद की विवक्षा करने पर उसमें सम्यग्दर्शन का एक अंश है ही। यदि ऐसा न माना जावे तो उसके जात्यन्तर मानने में विरोध आता है । शंका-एक जीव में एक साथ सम्यक् और मिथ्यारूप दृष्टि सम्भव नहीं है, क्योंकि इन दोनों दृष्टियों का एक जीव में एक साथ रहने में विरोध आता है। यदि कहा जावे कि ये दोनों दृष्टियां क्रम से एक जीव में रहती हैं तो उनका सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि नाम के स्वतन्त्र गुणस्थानों में हो अन्तर्भाव मानना चाहिए । इसलिये सम्यग्दृष्टि भाव सम्भव नहीं है । समाधान-युगपत् समीचीन और असमीचीन श्रद्धाबाला जीव सम्यग्मिध्यादष्टि है । इसमें विरोध भी नहीं आता, क्योंकि आत्मा अनेक धर्मात्मक है, इसलिये उसमें अनेक धर्मों का सहानवस्थान लक्षण का विरोध प्रसिद्ध है । आत्मा के अनेकांत । १. ज.ध. पु. १२ पृ. ३२१-२२ । २. घ. पु. १ पृ. १६८, प्रा. पं. सं. १११०; गो. जी. का. गा. २२ । ३. घ. पु. ५ पृ. २०८। ४. घ. पु. ५ पृ. २०८ ।
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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