SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 395
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्षपणासार ८८ [गाथा ६३-६५ प्रतिच्छेद दुगुणे आदि हैं। अन्तिमस्पर्धककी प्रथमवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगुणे हैं। विशेषार्थ:--अश्वकर्णकरणके अन्तिम समय में लोभकषायको प्रथमअपूर्वस्पर्धकसम्बन्धी आदिवगंणामें अविभागप्रतिच्छेद स्तोक हैं । द्वितीय अपूर्वस्पर्धकको प्रथमवर्गणामें अविभागप्रतिच्छेद दुगुणे और तृतीय स्पर्धकको प्रथमवर्गणा अविभागप्रतिच्छेद तिगुणे हैं। इसप्रकार प्रथमस्पर्धककी प्रथमवर्गणासम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदाग्रसे जितनवें स्पर्धककी प्रथमवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदारका संकल्प हो उतनवें स्पर्धकको प्रथमवर्गणामें प्रथमस्पर्धक सम्बन्धी प्रथमवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदाग्नसे उतनागुणा अविभागप्रतिच्छेदाग्र होता है । इस प्रकार अनन्तस्पर्धक चढ़नेपर अनन्तवें स्पर्धककी प्रथमवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदारका गुणाकार अनन्त है । अन्तिमस्पर्धककी प्रथमवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगृणे हैं, यह कथन एकपरमाणुसम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदको अपेक्षा किया गया है सर्वपरमाणुको अपेक्षा किंचिदऊन दुगुणा तिगुणा आदि क्रम लिये है, क्योंकि प्रतिवर्गणामें परमाणुको संख्याहीन होती जाती है । इसोप्रकार माया, मान और क्रोधके अपूर्वस्पर्धकोंमें अविभागप्रतिच्छेदसम्बन्धी अल्पबहुत्व जानना चाहिए'। 'आदोलस्स य पढमे रसखंडे पाडिदे अयुव्वादो। कोहादी अहियकमा पदेसगुणहाणिफया तत्तो ॥६३॥४८४॥ होदि असंखेज्जगुणं इगिफड्डयवग्गणा अणतगुणा । तत्ती अर्णतयुरिणदा कोहस्स अपुवफड्ढयाणं च ॥६४॥४५॥ माणादीणहियकमा लोभगपुव्वं च वग्गणा तेसि । कोहोति य अठ्ठपदा अणंतगुणिदक्कमा होति ॥६५॥४८६॥ अर्थ-आंदोलकरण अर्थात् अश्वकर्णकरणके प्रथम अनुभागखण्डके पतित होने पर क्रोधादिके अपूर्वस्पर्धक विशेषअधिक क्रमसे हैं। प्रदेशगुणहानिके स्पर्धक उससे १. जयबल मूल पृ. २०४१ । २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ७६६-६७ सूत्र ५५८ से ५७७ । धवल पु०६ पृ० ३७३ | जयपवल मूल पृष्ठ २०४२-२०४३ ।
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy