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________________ १५२] क्षपणासार [गापा १७७ कृष्टियां विशेष अधिक हैं (क्योंकि उनका प्रमाण है ।) मानके संक्रमित होनेपर मायाको प्रथमसंग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टियां विशेष अधिक हैं (क्योंकि उनका प्रमाण । है ।) मायाके संक्रमित होनेपर लोभको प्रथमसंग्रहकृष्टिसम्बन्धी अन्तरकृष्टियां विशेषअधिक हैं (क्योंकि उनका प्रमाण ३३ है ।) प्रथमसमय में की गई सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टियां विशेष अधिक हैं (क्योंकि उनका प्रमाण १४ है।) इसप्रकार चारकषाय और पांचवीं सूक्ष्मसम्परायिककृष्टि अपनेसे अनन्तरपूर्व से संख्यातवेंभागअधिक क्रमवाले हैं। विशेषार्थ-इस उपयुक्त अल्पबहुत्व में क्रोधादि कषायों की प्रथमसंग्रहकृष्टिसम्बन्धी अन्तरकृष्टियोंकी हीनाधिकता बतलानेके लिए जो अङ्कसन्दृष्टि दी गई है, उसका स्पष्टीकरण यह है कि प्रदेशबन्धको अपेक्षा आये हुए समयप्रबद्धके द्रव्यका जो पृथक-पृथक् कर्मों में विभाग होता है उसके अनुसार मोहनीयकर्म के हिस्से में जो द्रव्य आता है उसका दर्शनमोहनीय व चारित्रमोहनीयमें विभाग होता है । चारित्रमोहनीयका द्रव्य अवान्तरप्रकृतियों में विभाग होता है। प्रथमगुणस्थानके पश्चात् मोहनीयकर्मका सर्वद्रव्य चारित्रमोहनीयको मिलता है उसका आधाभाग (1) नोकषायको और आधाभाग (8) चारकषायोंको मिलता है। इसप्रकार संयमीकेमात्र संज्यलनका बन्ध होनेसे संज्वलनक्रोधको आधेका चौथाई भाग (Ex.) अर्थात् मोहनीयकमका आठवांभाग मिलता है । पुनः यह आठवांभाग भी क्रोधकी तीनों संग्रहकृष्टियों में विभक्त होता है, अतएव क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका द्रव्य मोहनीयकर्मके सकलद्रव्यकी अपेक्षा (४) चौबीसवांभाग है । नोकषायका सत्त्वरूपसे अवस्थित सर्वद्रव्य (1) भी कोषको प्रथमसंग्नहष्टि में पाया जाता है, उसके साथ इसका द्रव्य मिलनेपर (+) भाग हो जाता है अत: क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टिकी अन्तरष्टियोंका प्रमाण भी उतना ही (1) है । जो उपरिमपदकी अपेक्षा सबसे कम है । भाग प्रमाणवाली क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टि जिससमय क्रोधकी द्वितीयसंग्रहकष्टि में संक्रमित होती है उस समय द्वितीयसंग्रह कृष्टिकी अन्तरकृष्टियोंका प्रमाण हो जाता है। पुनः क्रोधकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिका तृतीयसंग्रहकृष्टि में संक्रमण हो जानेपर उसका प्रमाण (१४+) हो जाता है, पुनश्च क्रोधको तृतीयसंग्रहकष्टि जब मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें संक्रान्त होती है तब उसका प्रमाण (+11) ३४ हो जाता है । इसप्रकार १ भाग प्रमाणवाली कोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिको अपेक्षा मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टि का प्रमाण विशेष अधिक है, क्योंकि इसमें और अधिक मिल गया है। मान की तीनों संग्रहकृष्टियोंका द्रव्य पूर्वोक्त
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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