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लब्धिसार
[ गाथा ११-१५ विशेषार्थ--अन्तःकोडाकोड़ीसागरोपम स्थितिबन्धसे पृथक्त्व १०० सागरप्रमाण स्थितिबन्ध घटनेका क्रम इसप्रकार है-अन्तःकोड़ाकोड़ीसागरप्रमाग स्थितिबंधसे पल्यके संख्यात–भागसे होन स्थितिको अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त समानता लिये हुए ही बांधता है, फिर उससे पल्यके संख्यातवेंभागहीन स्थितिको अन्तर्मुहूर्ततक बांधता है। इसप्रकार पल्यके संख्यातवेंभागहीन क्रमसे एकपल्यहीन अन्तःकोड़ाकोड़ीसागरोपम स्थितिको अंतमुहर्ततक बांधता है तथा इसी पल्यके संख्यातवेंभाग हीन क्रमसे स्थितिबन्धापसरण करता हुमा दो पल्यसे हीन, तीनपल्यसे हीन इत्यादि स्थितिको अंतर्मुहर्ततक बांधता है । पूनः इसीक्रमसे आगे-पागे स्थितिबन्धका ह्रास करता हुआ एक सागरसे हीन, दो सागरसे हीन, तीन मायादसे हीन इमादि ऋगस सात-पाठसा सागरोपमोंसे हीन अंतःकोटाकोटीप्रमाण स्थितिको जिससमय बांधने लगता है, उससमय प्रकृतिबंध-व्युच्छित्तिरूप एकबन्धापसरण होता है। उपर्युक्त क्रमसे ही स्थितिबन्धका ह्रास होता है और जब वह ह्रास सागरोपम शतपृथक्त्व प्रमित हो जाता है तब प्रकृति बन्ध व्युच्छित्तिरूप दूसरा बन्धापसरण होता है । यहीक्रम आगे भी जानना चाहिए' ।
आगे चौतिस प्रकृतिबंधापसरणोंको पांच गाथाओंके द्वारा कहते हैंभाऊ पडि णिरयदुगे, सुहुमतिये सुहमदोरिण पत्तेयं । बादरजुन दोगिण पदे, अपुरणजुद बितिचसगिणसगणीसु ॥११॥ भट्ट अपुरणपदेसु वि, पुरणेण जुदेसु नेसु तुरियपदे । एई दिय पादावं, थावरणामं च मिलिदव्यं ॥१२॥ तिरिगदुगुज्जोवो वि य, रणीचे अपसत्यगमणदुभगसिए । हुँडासंपत्ते वि य, णउंसए बामखीलीए ॥१३॥ खुज्जद्धं णाराए, इत्थीवेदे य सादिणाराए । णग्गोधवज्जणारा ए मणुओरालदुगवज्जे ॥१४॥ प्रथिरप्रसभ जस परदी, सोयप्रसादे य होति उत्तीमा। बंधोसरणटाणा, भवाभब्वेस सामण्णा ॥१५॥
१. यह विशेषार्थ ल. सा. की संस्कृतटीकाके आधारसे लिखा है।