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________________ गाथा १५ ] लब्धिसार अर्थ-आयुबन्धव्युच्छित्ति स्थानोंके पश्चात् क्रमशः नरकद्विक, सूक्ष्मादि तीन, सूक्ष्मादि दो व प्रत्येक, बादर-अपर्यान-साधारण, बादर-अपर्याप्त-प्रत्येक, अपर्याप्तद्वीन्द्रिय, अपर्याप्त-त्रीन्द्रिय, अपर्याप्तचतुरिन्द्रिय, अपर्याप्त-असंज्ञी-पंचेन्द्रिय, अपर्याप्तसंजीपंचेन्द्रिय ॥११।। पाठ पदोंमें अपर्याप्तके स्थानपर पर्याप्त जोड़ना चाहिए, किन्तु चतुर्थपद एकेन्द्रिय-प्रातप-स्थावर भी मिलाना चाहिए । अर्थात् ( पूर्वोक्त छठे पदसे १३३ पदतक ८ पदोंमें अपर्याप्तके स्थानपर पर्याप्त जोड़ना चाहिए)। तिर्यञ्चद्विक व उद्योत, नीचगोत्र, अप्रशस्तविहायोगति और दुर्भगादि तीन ( दुर्भग-दुःस्वर-अनादेय ), हुण्डसंस्थान-सृपाटिकासंहनन, नपुंसकवेद, वामनसंस्थान व कीलितसंहनन । कुब्जसंस्थानअर्धनाराचसंहनन, स्त्रीवेद, स्वातिसंस्थान-नाराचसंहनन, न्यग्रोधसंस्थान-बननाराचसंहनन, मनुष्यगतिद्विक ( मनुष्यगति-मनुष्यगत्यानुपूर्वी )-औदारिकद्विक ( श्रौदारिकशरीर-औदारिकाङ्गोपाङ्ग)-ववर्षभनाराचसंहनन । अस्थिर-अशुभ-अयश कीति-अरतिशोक व असातावेदनीयकी बन्धव्युच्छित्ति होती है । ये ३४ बन्धापसरगस्थान भव्य व अभव्य के समानरूपसे होते हैं । विशेषार्थ-सात-आठसौ सागरोपमसे हीन अन्तःकोडाकोड़ीसागरप्रमाण स्थिति को जिससमय बांधने लगता है उससमय एक नरकायु प्रकृति 'बन्धसे व्युच्छिन्न होती है, उससे सागरोपमशत पृथक्त्व नीचे अपसरणकरके तिर्यञ्चायुकी बंधव्यच्छित्ति होती है, उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर मनुष्यायुका बन्धव्युच्छेद' होता है तथा उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर देवायुको 'बन्धव्युच्छित्ति होती है। उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे नरकात और नरकगत्यानुपूर्वी इन दोनों प्रकृतियोंका एकसाथ 'बन्धव्युच्छेद होता है, उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर बावर-सम अपर्याप्त-साधारणशरीर परस्परसंयुक्त इन तीनों प्रकृतियोंका युगपत् 'बन्धब्युच्छेद होता है, उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे जाकर सूक्ष्म-अपर्याप्त-प्रत्येक परस्पर संयुक्त इन तीन प्रकृतियोंका 'बन्धव्युच्छेद होता है। उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर बाबर अपर्याप्त-साधारणशरीर परस्पर संयुक्त इन तीन प्रकृतियोंका 'बन्धव्युच्छेद होता है । उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे जाकर परस्परसंयुक्त बाबर-अपर्याप्त प्रत्येकशरीर इन तीनों प्रकृतियोंकी एकसाथ 'बन्धव्युच्छित्ति होती है। उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर परस्परसंयुक्त द्वीन्द्रियजाति और अपर्याप्त इन दोनों प्रकृतियोंका बंध. व्युच्छेद युगपत् होता है, उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर परस्परसंयुक्त
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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