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________________ गाथा २८३ ] लविसार [ २२१ विशेषार्थ - तत्पश्चात् संख्यातहजार स्थितिबन्धोंके हो जानेपर बादरलोभकी प्रथम स्थितिका अर्धभाग व्यतीत हो जाता है । अर्धभागसे कुछ अधिक प्रभागका होता है उनके अति समय में लोभसंज्वलनका स्थितिवन्ध घटकर दिवस पृथक्त्व प्रमाण हो जाता है । शेष कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यातहजार वर्ष प्रमाणसे घटकर हजारवर्ष पृथक्त्वप्रमाण होता है, परन्तु उस समय अनुभाग सत्कर्म स्पर्धकगत ही होता है ' । -37 अब संज्वलनलोभके अनुभागसस्त्रको कृष्टिकरण विधि कहते हैंविदिय लोभावरफड यट्ठा करेदि रसकिहिं । इगिफगद संखाणमांत भागमिदं ॥ २८३ ॥ अर्थ - (बादरलोभसंज्वलनकी प्रथम स्थितिके) दूसरे अर्धभाग में लोभके जघन्यस्पर्धक के नीचे अनुभाग कृष्टियोंको करता है। उनका प्रमाण एक स्पर्धककी वर्गगाओंके अनन्त भागप्रमाण है । विशेषार्थ - बादरलोभसंज्वलन की प्रथम स्थिति के प्रथम अर्धभाग के व्यतीत हो जाने पर द्वितीय अर्धभाग में लोभसंज्वलन के अनुभाग सत्कर्म सम्बन्धी जघन्य स्पर्धकके नीचे श्रनन्तगुरणी हा निरूपसे अपवर्तितकर अनुभागकृष्टियोंको करता है । सबसे जघन्य लतासमान स्पर्धककी प्रथमवर्गणा के अविभागप्रतिच्छेदोंसे अनन्तगुणे हीन अनुभाग युक्त सूक्ष्मकृष्टियोंको करता है । एक स्पर्धककी वर्गणात्रोंके आयाममें तत्प्रायोग्य अनन्तसे भाजितकर वहां एक खण्ड में जितनी वर्गणाएं प्राप्त हों तत्प्रमाण कृष्टियां बनती हैं । इतना विशेष है कि उपशमश्रेणि में स्पर्द्ध कगत लोभका बादरकृष्टिकरण न होकर सीधा सूक्ष्मकृष्टिकरण होता है । यह ज्ञातव्य है कि बादरलोभ स्पर्द्धकगत होता है तथा उसके सूक्ष्मकरणकी प्रक्रिया ही सूक्ष्मकृष्टिकरण कहलाती है । १. क. पा. सु. पृ. ७०१-७०२; ज. ध. पु. १३ पृ. ३०६ । २. से काले विदियतिभागस्स पढमसमये लोभसंजलखाणुभागसंत कम्मस्स जं जहणफय तस्स हेट्ठादों अणुभट्टी करेदि । तासि पमाणमेवफद्दय वग्गरपाणमांत भागो (ज. घ. मू. पू. १८५६ ) ज.ध. पु. १३ पृ. ३०७-८ ॥ क. पा. सुक्त पृ. ७०२ । ३. ४.
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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