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________________ १६. ] लब्धिसार [ गाथा २३७-२३० अब क्रमकरणका उपसंहार करते हैंतककाले वेयणियं णामागोदादु साहियं होदि । इदि मोहतीसवीसियवेय णियाणं कमो जादो ॥२३७।। अर्थ- उतने ही अर्थात् संख्यातहजार स्थितिबन्ध हो जाने पर तीन घातिया तीसिय नर्थात् ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अन्तराय कर्मोंका स्थितिबन्य वीसिय अर्थात नाम ब गोत्र कर्मोके स्थितिबन्धसे असंख्यातगुणा हीन होता है। उसी समय नाम व गोत्रसे वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक हो जाता है। इसप्रकार मोहनीय, तीसिय, वीसिय और वेदनोयकर्मोका क्रम होता है । विशेषार्थ-इस अल्पबहुत्व विधिसे संख्यातहजार स्थितिबन्ध व्यतीत होनेपर ज्ञानावरणीय, दगारणी और अन्ना राप इन गानों ही कर्मोका स्थितिबन्ध एकबार में ही विशेष घातको प्राप्तकर नाम व गोत्र कर्मोंके स्थितिबन्धसे असंख्यातगुणा हीन हो गया, क्योंकि नाम व गोत्र इन दोनों अघातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध विशेष घातको प्राप्त नहीं होता। यद्यपि पहले इन तीनों घातिया कर्मोका स्थितिबन्ध नाम व गोत्र कर्मोंके स्थितिबन्धसे असंख्यातगुरणा होता था ! उस समय स्थितिबन्धका क्रम इसप्रकार । हो जाता है-- मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है, उससे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय इन तीनों कर्मोंका स्थितिबन्ध परस्पर तुल्य होकर असंख्यातगुणा, उससे नामकर्म और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा, उससे वेदनीय कर्मका स्थितिवन्ध द्वितीयभागमात्र विशेष अधिक है, क्योंकि नाम व गोत्रकर्म वीसिया हैं और वेदनीयकर्म तीसिया है। आगे नम करणके अन्तमें असंख्यात समयप्रबद्धोंको उदोरणा और उसका कारण बताते हैं तीदे बंधसहस्से पल्लासंखेज्जयं तु ठिदिबंधो । तस्थ असंखेज्जाणं उदीरणा समयपबद्धाणं ॥२३॥ १. ज. प. पु. १३ पृ. २४६-२४८ ।
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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