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क्षपणासार
[गाथा १२॥
जानना । यदि इसप्रकार नहीं होगा तो पहले स्तोक शक्तिवालो कृष्टियोंका अनुभव होकर पश्चात् अधिक शक्तिवाली कृष्टियोंका अनुभव होगा सो होता नहीं, क्योंकि प्रति. समय अनन्त गुणे घटते हए अनुभागका अनुभद होता है । जरिए संग्रहकृष्टियों में कृष्टिकारकसे कृष्टिवेदकका उलटा क्रम जानना, किन्तु अन्तरकृष्टियों में पूर्वोक्त क्रम ही है ।
'किट्टीवेदगपढमे कोहस्स य पढमसंगहादो दु । कोहस्त य पढमठिदी पत्तो उव्वट्टगो मोहे ।।१२३॥५१४॥
अर्थ--कृष्टिवेदककालके प्रथमसमयमें क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिसे क्रोधको प्रथम स्थिति प्रास करता है तथा मोहनीयकर्म का अपवर्तनपात करता है।
... विशेषार्थ-कृष्टिकरणकालके धरमसमयपर्यन्त तो जहां कष्टियों के दृश्यमान प्रदेशों का समूह चयरूप घटते हुए क्रमसहित गोपुच्छाकाररूपसे अपने स्थान में रहता है और स्पघंकोंके प्रदेशोंका समूह एक गोपुच्छाकार रूपसे अपने स्थानमें रहता है वहां कृष्टियोंके द्रव्यसे स्पर्धकोंका द्रव्य असंख्यातगुणा है अतः कृष्टि और स्पर्धकोंका एक गोपुच्छाकार नहीं है, किन्तु कृष्टिकरणकालकी समाप्तिके अनन्तर सभी द्रव्य कृष्टिरूप परिणमनकर एक गोपुच्छाकाररूप रहता है, तब संज्वलन के सर्वद्रव्यको आठका भाग देकर उसमें से एक-एक भागप्रमाण द्रव्य लोभ, माया और मानका तथा पांचभागप्रमाण द्रव्य क्रोधका जानता। यदि. १२ संग्रहकृष्टियोंमें विभाग किया जावे तो संज्वलनके सर्वद्रव्यको २४का भाग देनेसे वहाँ अन्य संग्रहकृष्टियोंका एक-एक भागप्रमाण और क्रोधकी प्रथमसंग्रहकष्टिका १३ भागप्रमाण द्रव्य है । यहां साधिकपना न्यूनपना है सो यथासम्भव पूर्वोक्तप्रकार (गाथा १०५के अनुसार) जानना । पहले कृष्टिकरणकालके द्वितीयसमयमें जैसा विधान कहा वैसा हो यहां भी जानना । प्रथमसमयमें की गई कृष्टियोंके प्रमाणमैं उसके असंख्यातवेंभागप्रमाण द्वितीयादि सभयों में की गई कृष्टियोंका प्रमाण जोड़नेपर सर्व : पूर्व-अपूर्वकृष्टियोंका प्रमाण प्राप्त होता है। कृष्टिवेदकके प्रथमसमयमें क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिके द्रव्यको अपकर्षणभागहारका भागदेकर लब्धमें से एकभाग ग्रहणकर उसको पल्य के असंख्यातवेंभागका भाग देकर उसमेंसे एकभागको
१. जयधवल मूल पृष्ठ २०६७ । २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८०४ सूत्र ६८६ । . पु० ६ पृष्ठ ३६३ । जयषवल मूल पुष्ठ २०६७ ।