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गाथा २६६-३०० ]
लब्धिसार
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विशेषार्थ - दूसरे समय में तो प्रथम समय में उदीर्ण हुई कृष्टियों के अग्रसे अर्थात् सबसे उपरम कृष्टिसे लेकर नीचे पल्यके असंख्यातवें भाग मारण कृष्टियों को छोड़ता है, क्योंकि ऐसा न हो तो प्रथम समयके उदयसे दूसरे समयका उदय अनन्तगुणा हीन नहीं बन सकता है । इसलिये पूर्व समय में उदीर्ण हुई कृष्टियों में से सबसे उपरिम कृष्टिसे लेकर असंख्यातवें भागप्रमाण उपरिम भागको छोड़कर अधस्तन बहुभागप्रमाण कृष्टियोंका दूसरे समय में वेदन करता है, परन्तु नीले प्रथमसमय में अनुदीर्ण हुई कृष्टियों के अपूर्वं श्रसंख्यातवें भाग को वेदता है अर्थात् आलम्बनकर ग्रहण करता है । प्रथम समय में उदीर्णं कृष्टियोंसे दूसरे समय में उदीर्ण हुई कृष्टियां श्रसंख्यातवें भाग प्रमाण विशेषहीन हैं, क्योंकि अवस्तन अपूर्व लाभसे उपरिम परित्यक्त भाग बहुत स्वीकार किया गया है । इसीप्रकार सूक्ष्मसाम्पराय के अन्तिम समयके प्राप्त होने तक तृतीयादि समयों में भी कथन करना चाहिए ।
इसप्रकार सूक्ष्मसाम्परायिकगुणस्थानके कालका पालन करता हुआ आवलि प्रत्यावलिके शेष रहने पर आगाल- प्रत्यागालका विच्छेद करके पश्चात् एक समयाधिक आवलिकालके शेष रहनेपर जघन्य स्थिति उदीरणा करके पुनः क्रमसे सूक्ष्मसाम्परायका अन्तिम समय प्राप्त हो जाता है'
अथानन्तर सूक्ष्मकृष्टिद्रव्यके उपशम सम्बन्धी विधि एवं सूक्ष्मसाम्परायके अन्तमें फर्मोंके स्थितिबन्धका निर्देश करते हैं
किटि समाददो चरिमोति श्रसंखगुणिदसेडीए । उवसमदि हु तच्चरिमे भवरट्ठदिबंधणं वरहं ॥२६६ ॥ अंतीमुत्तमेतं घादितिया जहरण ठिदिबंधो । णामदुग वेयणीये सोलस चउवीस य मुहुत्ता ||३००||
अर्थ- सूक्ष्मसाम्पराय के प्रथम समयसे अन्तिम समयतक कृष्टियों को प्रसंख्यातगुणी श्रेणिक्रमसे उपशमाता है । अन्तिम समय में छहकमका जघन्य स्थितिबन्ध होता
। तीन घातिया कर्मो का अन्तर्मुहूर्तप्रमाण, नाम व गोत्रका १६ मुहूर्त और वेदनीयका चौवीस मुहूर्तप्रमाण जघन्य स्थितिबन्ध होता है ।
१. ज ध. पु. १३५. ३२४-२५ ।