SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 265
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ r-.. पृष्ठ परिभाषा देवचतुष्क १८ देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, बैंक्रियिकशरीर, बैंक्रियिकमरीर अंगोपांग: इन चार प्रकृतियों का समूह "देवचतुष्क" कहलाता है । भावारणोपशामना २४० रेखो-करोपशामना की परिभाषा में। देशघातीकरण १७७। अनिवृत्तिकरण काल में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराम का बन्ध जब देश धातिरूप होने लगता है, सर्वघातीरूप से बन्ध नहीं होता तब उसको देशघातीकरण कहते हैं। देप्रचारित्र इसे संयमासंयम भी कहते हैं । देशचारित्र का घात करने वाली अप्रत्याख्यानावरण कषायों के उदयाभाव से हिंसादिक दोषों के एक देश विरतिलक्षण अणुव्रत को प्राप्त होने वाले जीव के जो विशुद्ध परिणाम होता है उसे दिशचारित्र" अथवा संयमासंयमलन्धि कहते हैं। देशनालक्वि जीवादिक ६ द्रव्य तथा जीव, अजीब, प्रामव प्रादिक पदार्थों के उपदेश का नाम देखना है । उस देशना से परिणत प्राचार्यादि की उपलब्धिको और उपदिष्ट अर्थ के ग्रहण, धारण तथा विधारमा फी भक्ति के समागम को देशनालब्धि कहते है। धवल ६/२०४ द्वितीय स्थिति जीव दर्शनमोह प्रादि के उपशम के समय अरतरकरण करता है । उस समय वह अन्तर के लिये जितनी स्थितियों को ग्रहण करता है उसकी "अन्तरायाम" संज्ञा है। उस पतराय के नीचे जितनी स्थिति है वह "प्रथम स्थिति" कहलाती है। तथा भरतराय से ऊपर जितनी कर्म स्थिति है वह "द्वितीय स्थिति,' कहलाती है। द्वितीयोपशम मिथ्यात्व से उत्पन्न होने वाला उपशम सम्यक्त्व प्रथमोपशम सम्यक्त्व है। यह चतुर्थ से सप्तम गुरुस्थान तक होता है। क्षयोपशाम सम्यक्त्व प्रास् बेदकसम्यक्त्व सम्यक्त्व पूर्वक होने वाला उपशम सम्यक्त्व द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कहलाता है। यही फिर चारित्रमोह की उपशामना करने के लिये प्रवृत्त होता है, अन्य प्रथमोपशम सम्यक्वी या वेदक सम्यक्स्पी नहीं। यह द्वितीयोपशम सम्यक्त्व चतुर्थगुणस्थान से सप्तमगुणस्थान तक के किसी भी गुण स्थान में स्थित झायोपशम सम्यग्दृष्टि मनुष्य के उत्पन्न होता है । घबल पु० १/११: स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गा० ४८४ की टीका, मूलाचार पर्याप्सि मधिकार १२ गा• २०५ की टीका; घबल १/२१४ अन्यत्र भी कहा है-उपशम कणि के योग से जिसका मोह (वर्शन मोह) उप
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy