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________________ पृष्ठ द्विस्थानीय अनुभाग २८ नवकसमय प्रबद्ध ३०२ परिभाषा शान्त हो चुका है। उसके जो मोह के उपशम से सम्यक्त्व उत्पन्न ोता है वह द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कहलाता है । ज. ल. २/५६६ विधि ल. सा• गा २०५ से २१८ में देखनी चाहिये। प्रप्रशस्त प्रकृतियों की अपेक्षा "लतान्दारू" रूप अथवा 'नीम-कांजीर' रूप अनुभाग । प्रशस्त प्रकृतियों की अपेक्षा "गुड़, खाण्ड" रूप अनुभाग द्विस्थानीय अनुभाग कहलाता है। नवक अर्थात् नवीन समयप्रबद्ध । जिनका बन्ध हुए थोड़ा काल हुआ है। संक्रमणादि करने योग्य जो निषेक नहीं हुए ऐसे नूतन समयप्रबद्ध के निषेक का नाम नवक समयप्रनत है । (गो० क. ५१४ टीका) दर्शनमोह; १ चारित्रमोहनीय २ की उपशामना प्रादि के समय विवक्षित कर्म के अंतिम समय के बन्ध के समय से लेकर चरम द्विचरम प्रादि एक समय कम दो मावली प्रमाण समयप्रया अनुपमित अथवा अविनष्ट रह जाते हैं। उन समयप्रबद्धों की नबक समयप्रबद्ध संशा है। जैसे चारित्रमोहनीय उपशामक के मनिवृत्तिकरण गुणस्थान में अन्तिमसमयवर्ती सवेदी के एक समय कम दो प्रावली प्रमाण नवक समय प्रबद्ध अनुपशान्त रहते हैं। पुरुषवेद के । जो प्रागे मपगतवेदी अवस्था में एक समय कम दो मावली काल में नष्ट होते हैं । ( ज. ध० १३/ २८७ ) इसीतरह जैसे मान का उपशामक है । तो उसके चरम समय बन्ध के समय एक समय कम दो प्रावली प्रमाण समय प्रबद्ध मनुपशान्त रह जाते हैं। बाकी सब मानद्रव्य उपशान्त हो जाता है (उच्छिष्ठावली गौण है) यह एक समय कम दो मावली प्रमाण नवक बद्ध द्रव्य मायावेदक काल के भीतर एक समय कम दो मावलीकाल के द्वारा पूर्ण रूप से उपशमाये जाते हैं । क्योंकि प्रत्येक समय में एक-एक समय प्रबद्ध के उपाशामन क्रिया की समाप्ति देखी जाती है । ज. प. १३/३०१-३०२ इसी तरह कोष, माया, लोभ प्रादि के लिये भी प्रागमानुसार कहना चाहिये । इतना विशेष है कि नवक बम्व का बन्ध काल से एक प्रावली तक तो, बन्धावलि सकल करणों के अयोग्य होने से कुछ नहीं होता तथा बन्धावली के बाद उनका उपशमन काल एक प्रावली प्रमाण होता है (इसप्रकार एक नवक समय १जयघवल १२/२%8-8. २ ल० सा० गा० २६२, २६६, २७१, २७६, २८०, २६५ प्रादि
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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