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गांधा २६५-२६६ ]
लब्धिसार
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लेकर सद्भावके अन्तिम समय में उसके अभावका विधान गाथामें किया गया है । उत्पादानुच्छेदके अनुसार विवक्षित वस्तुके सद्भावका जो अन्तिम समय है उस समयमें ही उसके अभावका प्रतिपादन किया जाता है । वहांसे लेकर पुरुषवेदको मुगथेणी भी नहीं होती । प्रत्यावलिमें से ही असंख्यात समयप्रबद्धोंकी उदीरणा होती है।
हास्यादि छह नो कषायोंका द्रव्य पुरुषवेद में संक्रान्त महीं होता इसका कथन आगे की गाथामें करते हैं
अंतरकदादु छण्णोकसायदव्वं ण पुरिसगे देदि । एदि हु संजलणस्स य कोधे अणुपुस्विसंकमदो ॥२६५॥
अर्थ--अन्तर करनेके पश्चात् हास्यादि छह नोकषायोंका द्रव्य पुरुषवेदमें संक्रमित नहीं होता, संज्वलनक्रोधमें टी संक्रमित होता है, क्योंकि यहां अ.तुपूर्वी संक्रमण पाया जाता है ।
पुरुषयेवके नधक बन्ध सम्बन्धो उपशमका विधान कहते हैंपुरिसस्त उत्तणवकं असंखगुणियक्कमेण उवसमदि । संकमदि हु होणकमेणधापवत्तेण हारेण ॥२६६॥
अर्थ-पुरुषवेदके उक्त ( गाथा २६२ ) नवक समयप्रबद्ध द्रव्यको असंख्यातगणी श्रेणिके क्रमसे उपशमाता है, परन्तु पर प्रकृति में अधःप्रवृत्त संक्रम द्वारा हीन क्रमसे संक्रमाता है।
विशंषार्थ- अन्तिम समयवर्ती सवेदी जीवके एक समयकम दो आवलिप्रमाण नवक समयप्रबद्ध अनुपशान्त रहता है (गा. २६२)। अवेदभागके प्रथम समयमें दो समयकम दो प्रावलिप्रमाण नवक समयप्रबद्ध अनुपशान्त रहता है, क्योंकि अन्तिम प्रावलिका संपूर्ण नवकबन्ध तथा द्विचरमावलिका दो समयकम प्रावलिप्रमाण नवकबन्ध अनुपशान्त रहता है कारणकि नवक समयप्रबद्धका बन्धावलिके पश्चात् उपशमनकाल एक प्रावलिप्रमाण होता है। यहां पर प्रत्येक समयमें उनके प्रदेशपुञ्जको असंख्यातगुणी श्रेणिसे क्रमसे उपशमाता है। उनके प्रदेशपुञ्जको केवल स्वस्थानमें नहीं उपशमाता, किन्तु पर प्रकृतिमें अधःप्रवृत्त संक्रमके द्वारा हीन क्रमसे संक्रमाता है । बन्ध रुक जाने पर गुण
१. ज. प. पु. १३ पृ. २८५-८६ ।