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तपणासार
गाथा २५६
[ २२७ ___ जिसप्रकार नाली द्वारा जलका क्रमशः अभाव होता है या तपे हुए लोहपानमें स्थित जलका क्रमशः अभाव होता है उसीप्रकार ध्यानरूपी अग्निके द्वारा योगरूपी जलका क्रमशः नाश होता है। उक्त च
"जहसव्वसरोरगदं मंतेण विसं णिरु भए डंके । तत्तो पुणोऽवणिज्जदि पहाणज्झरमंत जोएण ॥ तह बादरतणुविसयं जोगविसं झाणमंतबलजुत्तो।
अणुभावम्हि रिशरु भदि अवणेदि तदो बि जिणवेज्जो' ।"
जिसप्रकार मंत्र द्वारा सर्वशरीरमें व्याप्त विषका डंकके स्थान में निरोध करते हैं और प्रधान क्षरण करनेवाले मंत्रके बलसे उसे पुनः निकालते हैं उसीप्रकार ध्यानरूपी मन्त्रके बलसे युक्त सयोगकेवलीजिनरूपी वैद्य बादर शरीर विषयक योगविषको पहले रोकता है इसके बाद उसे निकाल देता है।
चतुर्थशुक्लध्यानका कथन इसप्रकार है
जिसमें क्रिया अर्थात् योग सम्यक्प्रकारसे उच्छिन्न हो गया है वह समुच्छिन्नक्रिय कहलाता है। समुच्छिन्नक्रिय होकर जो अप्रतिपाति है वह समुच्छिन्न क्रियाप्रतिपातिध्यान है । यह श्रुतज्ञानसे रहित होने के कारण अवितर्क है, जोवप्रदेशोंके परिस्पन्दका अभाव होनेसे अवीचार है या अर्थ-व्यञ्जन-योगको संक्रान्तिका अभाव होनेसे अवीचार है।
"अविदक्कमवीचारं अणियट्टी अकिरियं च सेलेसि ।
ज्माणं णिरुद्ध जोगं अपच्छिम उत्तमं सुक्क' ।।"
अन्तिम उत्तम शुक्लध्यान वितरहित, वीचाररहित है. अनिवृत्ति है, क्रियारहित है, शैलेशी अवस्थाको प्राप्त है और योगरहित है ।
योगका निरोध होने पर शेषकर्मोकी स्थिति आयुकर्मके समान अन्तर्मुहूर्त होतो है, तदनन्तरसमयमें शैलेशी अवस्थाको प्राप्त होता है और समुच्छिन्नक्रिय अनिवृत्ति शुक्लध्यानको पाता है। १. धवल पु० १३ पृष्ठ ८७ गाथा ७५-७६ । २. धवल पु० १३ पृष्ठ ७ गाथा ७७ ।