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क्षपणासार
[ गाथा २५६
शङ्का यहां ध्यानसंज्ञा किस कारणसे दी गई है ।
समाधान-एकाग्ररूपसे जीवके चिन्ताका निरोष अर्थात् परिस्पन्दका अभाव होना ही ध्यान है। इसदृष्टि से यहां ध्यानसंज्ञा दी गई है।
शङ्का--इस ध्यानका क्या फल है ?
समाधान-अघातिचतुष्कका विनाश करना इस ध्यानका फल है तथा योगका निरोध करना तृतीयशुक्लध्यानका फल है ।
__ शैलेशी अवस्थाका काल क्षीण होनेपर सर्वकर्मोसे मुक्त हुआ यह जीव एकसमयमें सिद्धिको प्राप्त होता है। कहा भी है--
"जोगविणासं किच्चा कम्म चउक्कस्स खवणकरण। जं झायदि अजोगिजिगरे णिकिरियं तं चउत्थं य* ॥"
योगका अभाव करके अयोगकेवलोभगवान् चार अघातिया कर्मों को नष्ट करनेके लिए जो ध्यान करते हैं वह चतुर्थ व्युपरतक्रियानिवृत्ति नामक शुक्लध्यान है, इसका दूसरा नाम समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाति भी है । इसके द्वारा वेदनीय, नाम, गोत्र और आयु इन चार अघातियाकर्मों का क्षय होता है। १४वें गुणस्थानवाले अयोगिजिन इसध्यानके स्वामी हैं।
शंका-ध्यान मनसहित जीवोंके होता है, केवलीके मन नहीं है अतः वहां ध्यान नहीं है ?
समाधान-ध्यानके फलस्वरूप फर्म निर्जराको देखकर केवलीके उपचारसे ध्यान कहा गया है । अथवा यद्यपि यहां मनका व्यापार नहीं है तथापि पूर्ववृत्तिकी अपेक्षा उपचारसे ध्यान कहा गया है । पुनरपि कहा है
माणं सजोइकेवलि जह सह अजोद पत्थि परमत्थे । उवयारेण पउत्त भूयस्थ णय. विवक्खा य ।।
१. धवल पु० १३ पृष्ठ ८७-८८ । २. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा ४८७ ।