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गाया २६० ]
क्षपणासार
[ २२६
झाणं तह झायारो झेयवियप्पा य होंति मरणसहिए।
तं णस्थि केवलि दुगे तम्हा भाणं ण संभवदि' ॥"
ध्यान, ध्याता, ध्येय और विकल्प ये सब मनसहित जीवोंके होते हैं, परन्तु वह मन सयोग व प्रयोगकेवलीके नहीं है अतः इनके ध्यान सम्भव नहीं है । जिस प्रकार सयोगके वलीके ध्यान नहीं है उसीप्रकार अयोगकेवलोके ध्यान नहीं है, इनके भूतपूर्वनयको अपेक्षा औपचारिकक्ष्यात माना जाता है । तथापि उक्त--
"यद्यत्र मानसो व्यापारी नाति राधा चुपचारायया ध्यानमित्युपचर्यते । पूर्ववृत्तिमपेक्ष्य धृतघटवत् । यथा घटः पूर्वं घृतेन भृतः पश्चाद रिक्तः कृतः घृतघदं मानीयतामित्युच्यते तथा पूर्व मानसव्यापारत्वात् ॥"
यद्यपि यहां मनका व्यापार नहीं है तथापि पूर्ववृत्तिकी अपेक्षा उपचारसे ध्यान कहा गया है । जैसे घटमें पहले घो भरा हुआ था पश्चाद वह रिक्त हो गया फिर भो वह घीका घट कहलाता है । पहले मनका व्यापार था, केवली होनेपर मनका व्यापार नहीं रहा तथापि भूतपूर्व नयसे ध्यानका उपचार किया जाता है । और भी कहा है
"निरवशेष निरस्तज्ञानाबरणे युगपत् सकलपदार्थावभासि केवलज्ञानातिशये चिन्ता निरोधाभावेऽपि तत्फलकर्मनिर्हरणफलापेक्षया घ्यानोपचारवत्' ।"
समस्तज्ञानावरणके नाश हो जानेपर युगपत् समस्तपदार्थों के रहस्यको प्रकाशित करनेवाले केवलज्ञानका अतिशय होनेपर चिन्तानिरोधका अभाव होने पर भी फर्मोके भाशरूप उसके फलकी अपेक्षा ध्यानका उपचार किया जाता है ।
सो मे तिहुणमहिदो सिद्धो बुद्धो णिरंजणो णिच्चो । दिसदु वरणाणदसणचरित्तसुद्धि समाहिं च॥२६०॥६५१।।
अर्थ-~-तीनलोकसे पूजित, बुद्ध, निरंजन, नित्य ऐसे सिद्धभगवान् मुझे उस्कृष्ट ज्ञान-दर्शन व चारित्रको शुद्धि तथा समाधि देवें ।
१. भावसंग्रह गा० ६८२-८३ । २. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गा० ४८७ को टोका पृष्ठ ३८५ । ३. सर्वार्थसिद्धि अ. ६ सूत्र ११ ।