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________________ २३०] पाणासार [ गाथा २६० विशेषार्थ-पंच लघुअक्षर (अ इ उ ऋ ल) के उच्चारणमें जितना काल लगता है उतने कालप्रमाणवाले अयोगके वली नामक १४वें गुणस्थानको अध:स्थितिगलनके द्वारा व्यतीतकरके समस्तकर्मोके पूर्णरूपसे क्षय होजाने के कारण निरंजन हैं । अनन्तज्ञान व अनन्तदर्शन पराकाष्ठाको प्राप्त हो जाने से बुद्ध हैं, अविकल आत्मस्वरूपकी उपलब्धि हो जाने से नित्य, अविनाशी अर्थात् आत्मस्वरूपसे चलायमान होनेवाले नहीं हैं । समस्त पुरुषार्थ सिद्ध हो जाने से सिद्ध हैं, तीनलोकके शिखरपर विराजमान हो जानेसे तीनलोकसे पूजित हैं अथवा उनका ध्यान करने से भव्य जीवोंको मोक्षकी सिद्धि हो जाती है इसलिए भी वे सिद्धभगवान पूजित हैं। चरमशरीरसे किंचित् न्यून आकार वाले अमूर्तिक (कम नोकर्मसे रहित होने के कारण) सिद्ध भगवान मुझे क्षायिकज्ञान-दर्शन-चारित्र तथा समाधि (वीतरागता) देखें । से दीपकका बुझना प्रदीपका निर्धारण है उसीप्रकार आत्माको स्कन्धसन्तान का उच्छेद होनेसे अभावमात्र निर्वाणको कल्पना बौद्ध करता है। अभावलक्षणवाले निर्वाणका विरोध करने के लिए सर्वपुरुषार्थकी सिद्धिसे सिद्ध तथा ज्ञान व दर्शनको पराकाष्ठाको प्राप्त हो गये ऐसा कहा गया है । ज्ञानीजन स्वनाशके लिए पुरुषार्थ नहीं करते, किन्तु अपूर्वलाभके लिए पुरुषार्थ करते हैं । नैयायिक कहता है कि बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार, इन नव आत्मगुणोंके नाशसे निर्माणको कल्पना करते हैं, किन्तु यह कल्पना उचित नहीं है, क्योंकि गुणों के अभावसे मुणो पात्माका भी अभाव हो जावेगा । अतः उपर्युक्त पुरुषार्थसिद्धि व परमकाष्ठाको प्राप्त ज्ञान-दर्शन विशेषण दिए गए हैं। इसीप्रकार गधे के सींगके समान मुक्तावस्था में आत्माका अभाव माननेवालोंका तथा वार्य-कारणसम्बन्धसे रहित बहुत सोते हुए पुरुष के समान प्रात्माके अव्यक्त चैतन्य मानने वालोंका विरोध हो जाता है। अत: हमारे सिद्धान्तमें स्वात्मोपलब्धि ही निर्धारण (सिद्धि) है, यह सिद्ध हो जाता है । १. जयधवल मूल पृष्ठ २२६३-६४|
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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