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क्षेपणासार
[माथा १.५ कंषांयरूप द्रव्य है । अब यहापर कषायरूप द्रव्यको क्रोधादि चारकषायोंकी १२ संग्रहकृष्टियों में विभाग करतेपर क्रोध प्रथमसंग्रहकृष्टिका द्रव्य (२) अंकप्रमाण रहता है जो कि मोहनोयक मंके सकल (४६) द्रव्य की अपेक्षा कुछ अधिक २४यो भागप्रमाण है । प्रकृत हुष्टिकरणालमें नोकपाका सर्थद्रव्य भी संज्वलनकोषमें संक्रमित हो जाता है जो कि सर्व ही द्रव्यकृष्टि करनेवालेके कोषको प्रथमसंग्रहकृष्टिरूपसे हो परिणत होकर अवस्थित रहता है । इसका कारण यह है कि वेदन की जानेवाली प्रथमसंग्रहकृष्टिरूप से हो उसके परिणमनका नियम है। इसप्रकार क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टि के प्रदेशाग्रका स्वभाग (२) इस वोकषायद्रव्य (२४) के साथ मिलकर (२+२४=२६) क्रोधको द्वितीयसंग्रहकृष्टिके दो अञ्प्रमाण द्रव्य की अपेक्षा तेरहगुणा (२४१३=२६) सिद्ध हो जाता है । अतएव चूर्णिकारने उसे तैरहगुणा बतलाया है।
इसप्रकार उपयुक्त सूत्रसे सूचित स्वस्थान-अल्प बहुत्व इसप्रकार जानना चाहिए। क्रोधकी द्वितीयसंग्रहकृष्टि में प्रदेशाग्न संख्यातगुणित हैं। मानका स्वस्थानअल्पमहत्व इसप्रकार है-मानको प्रथमसंग्रहकृष्टि में प्रदेशाप्र सबसे कम है, द्वितीयसंग्रहकृष्टि में विशेष अधिक हैं, तृतीय संग्रह कृष्टि में विशेषअधिक हैं । इसीप्रकार माया और लोभसम्बन्धी स्वस्थान-अल्पबहुत्व जानना चाहिए ।
पडमादिसंगहामो पल्लासंखेज्ज भागहीणामो । कोहस्स तदीयाए भकप्तापाणं तु किट्टीओ ॥१०५॥४६६।।
अर्थ-संग्रहकृष्टिकरणको प्रथमं (जघन्य) संग्रहकृष्टिसे लेकर आगे-आगे क्रोधको द्वितीयसंग्रहकृष्टितक द्रव्य हीन होता गया है । प्रथमसंग्रहकृष्टिके द्रव्यको पल्यके असंख्यातवेंभागसे भाग देनेपर जो प्रमाण आवे उतना द्रव्य द्वितीयसंग्रह कृष्टि कम है। कृष्टिकरण की अपेक्षा कोष की तृतीयकृष्टि (उदयापेक्षा क्रोधकी प्रथमकृष्टि) में नोकषायका द्रव्य मिल जाता है ।
१. क. पा. सुत्त ८१२ । गाथा ६६ से १०४ तक ६. गाथाओंकी टीका मात्र क. पा. सुत्त और
घबल पु. ६ के आधारसे लिखो गई है क्योंकि जयधवल मूल (फलटनसे प्रकाशित) के पृष्ठ २०४५ से २०४८ के पृष्ठ नहीं मिल सके । इन गाथाओं सम्बन्धी विषय उन पृष्ठोंमें होगा ऐसा प्रतीत होता है।