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गाथा १०४]
क्षपणासाच
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विशेषार्थ--विभाजन द्वारा समयबद्धका जितना दव्य चारित्रमोहको मिलता है उसमें से आधा नोकषायसम्बन्धी है और आधा क्रोध-मान-माया-लोभ इन चार कषाय सम्बन्धी है । इसप्रकार प्रत्येक कषायको चारित्रमोहसम्बन्धी अर्धद्रव्यका चतुर्थ भाग मिलता है अर्थात् कोधकषायका चारित्रमोहनीय द्रव्य का आठवांभाग तथा मानका, मायाका और लोभका भी चारित्रमोहनीयद्रव्यका आठवी-आठवा भाग है। नोकषायस्वरूप चारित्रमोहनीयका आधा द्रव्य है ।
क्षपक अनिवृत्तिकरणकालके संख्यात बहुभाग व्यतीत हो जानेपर १३ प्रकृतियों का अन्तरकरण करके फिर नपुसकवेदको क्षपणाका प्रारम्भ करता है । पुनः उसका प्रारम्भ करते हुए गुण संक्रमणके द्वारा नपुसकवेदको पुरुषवेद में संक्रान्त करता है, क्योंकि नवम गुणस्थानमें अन्तरकरण करनेके बाद जो संक्रमण होता है वह आनुपूर्वी क्रमसे होता है अतः शेषकषायोंमें नपुसकवेद और स्त्रोवेदका संक्रमण न करके नपुंसकवेदका क्षपण करता हुआ नपुसकवेदको द्विचरमफालीके प्राप्त होने तक जाता है, उसके बाद अन्तिमफालीका पुरुषवेदमें संक्रमण होनेपर नपुसकवेद नष्ट हो जाता है फिर स्त्रीवेदका क्षपण प्रारम्भ करके अन्तमूहर्त प्रमाण उसके क्षपणाकालसम्बन्धो चरमसमय में स्त्रीवेदको अन्तिमफालीका पुरुषवेदमें संक्रमण होनेपर वीवेदका भी सम्पूर्णद्रव्य पुरुषवेद में संक्रान्त हो जाता है । पुनः इस पुरुषवेद (जिसमें नपुंसकवेद और वीवेद, इन दोनों वेदोंका द्रव्य संक्रान्त हो चुका है) के साथ शेष छह नोकषाय (हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा) का द्रव्य क्रोधसंज्वलनमें संक्रान्त हो जानेपर क्रोधसंज्वलनका उत्कृष्ट संचय होता है, क्योंकि उससमय क्रोधसंज्वलनका द्रब्य चारित्रमोहनीयके द्रव्यके (+) माठ भागोंमें से पांचभागप्रमाण हो जाता है। इसप्रकार | नोकषायोंका द्रव्य जो चारित्रमोहनीयके अर्धद्रव्यप्रमाण है वह क्रोधकृष्टि में सम्मिलित होता है।
क्रोधको द्वितीयसंग्रहकृष्टि से प्रथमसंग्रहकृष्टि में प्रदेशाग्र तेरहगुणा कैसे संभव है, इसका स्पष्टीकरण यह है कि मोहनीयकर्मका सर्वप्रदेशरूप द्रव्य अङ्कसन्दृष्टिको अपेक्षा ४६ कल्पित कीजिए | इसके दो भागों में से असंख्यातवेंभागसे अधिक एकभाग (२५) तो कषायरूप द्रव्य है और असंख्यातवें भागसे होन शेष दूसराभाग (२४) नो
१. जयधवल पु. ६ पृष्ठ १११-११२ ।