SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा ६५ ] लब्धिसार [ ७७ काल ये दोनों परस्पर तुल्य होकर विशेष अधिक है, क्योंकि पूर्वोक्त दोनों कालों से नीचे अन्तर्मुहूर्त काल पीछे जाकर अपूर्वकरण के प्रथम स्थितिकाण्डक के समय इनकी प्रवृत्ति होती है। इन दोनों से उपशामक जीव जब तक गुणसंक्रम के द्वारा सम्यक्त्वप्रकृति और मिश्रप्रकृति को पूर्ण करता है वह काल संख्यातगुणा है, क्योंकि उस काल के भीतर संख्यात स्थितिकाण्डक और स्थितिबन्ध सम्भव है। प्रथम समयवर्ती उपशामक (अन्तर करने वाला ) का गुणश्रेणीशीर्ष अर्थात् अन्तर सम्बन्धी अन्तिम फालिका पतन होते समय गुणश्रेणी निक्षेप' के अनाग्रसे संख्यातवें भाग का खंडन कर जो फालि के साथ निर्जीर्ण होने वाला गुणश्रेणि शीर्ष है वह पूर्वके मुरण संक्रम सम्बन्धीकाल से संख्यातगुणा है, क्योंकि गुणवेणि शीर्ष के संख्यातवें भाग में ही गुणसंक्रमकाल का अंत हो जाता है । अथवा गाथा सूत्र में प्रथम समयवर्ती उपशामक सम्बन्धी मिथ्यात्व का गुणश्रेणीशीर्ष ऐसा विशेषण लगाकर नहीं कहा है कि सम्मान्यरूप से गुणश्रेणी शीर्ष कहा गया है, इसलिये प्रथम समयवर्ती उपशामक के शेष कर्मोके गुणश्रेरिणशीर्षका नहरण करना चाहिए क्योंकि उन कर्मोका अन्तरकरण न होने से प्रथमसमयवर्ती उपशामकके उसके सम्भव होने में कोई विरोध नहीं पाया जाता । उससे प्रथमस्थिति संख्यातगुणी है, क्योंकि प्रथम स्थिति के संख्यातवें भाग मात्र ही गुणश्रेणीशीर्ष को अन्तर के लिये ग्रहण किया गया है। उससे उपशामक का काल विशेष अधिक अर्थात् एक समय कम दो प्रावलिमात्र विशेष अधिक है, क्योंकि अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि के द्वारा बांधे गये मिथ्यात्व सम्बन्धी नवक बन्ध का एक समय प्रथम स्थिति में ही गल जाता है, पुनः इस प्रथम स्थिति सम्बन्धी अन्तिम समय को छोड़ कर उपशम सम्यक्त्व काल के भीतर एक समय कम दो अाबलि प्रमाण ( बन्धावलि व संक्रमावलि ) काल ऊपर जाकर उस नवक बन्ध की उपशामना समाप्त होती है इसलिये प्रथमस्थिति में एक समय कम दो प्रावलिकाल प्रवेश कराकर यह विशेष अधिक हो जाता है। अणियट्टीसंवगुणो णिय द्विगुणसेढियायदं सिद्धं । उबसंतद्धा अंतर अवरवरावाह संखगुणियकमा ।।५।। १. मुणश्रेणीनिक्षेप = गुणश्रेणी-आयाम । २. ज. प. पु. १२ पृ. २८५-२२० ।
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy