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________________ शब्व ग्रन्थ में जहां भाया वह पृष्ठ ११५ प्रवस्तन कृष्टि अधःप्रवृत्त संक्रम भागहार अनुपादानुच्छेद २३१-६० अनुभाग काण्डक काल मनुसमयाय वर्तन अन्तर कृष्टि ५६ १९७, १३४ £€ लक्षणावली क्षपणासार परिभाषा प्रथम, द्वितीय आदि कृष्टियों को घस्तन कृष्टि कहते हैं । पत्य के श्रद्धच्छेद के श्रसंख्यातवें भाग प्रमाण प्रत्रः प्रवृत्त संक्रम भागहार होता है । किम्भव हो, सीको विवक्षित प्रकृति, उसके परमाणुत्रों को अधःप्रवृत्त संक्रम भागहार का भाग देने पर एक भाग मात्र परमाणु अन्य प्रकृति रूप हो जाते हैं, यह भवःप्रवृत्तसंक्रम कहलाता है । देखो - उत्पादानुच्छेद की परिभाषा में । एक अनुभाग काण्ड का घातप्रन्तर्मुहूर्त काल में पूरा होता है; इस काल का नाम अनुभागकाण्डकोत्कीरण काल या अनुभाग काण्डककाल है । जहां प्रति समय श्रनन्त गुणे कम से धनुभाग घटाया जाय वहां अनुसमयापवर्तन कहलाता है। पूर्व समय में जो अनुभाग था उसको अनन्त का भाग देने पर बहूभाग का नाश करके एक भाग मात्र, अनुभाग प्रबशेष रखता है। ऐसे समय-समय अनुभाग का घटाना हुआ; ग्रतः इसका नाम श्रतुसमापवर्तन है। कहा भी है -- उत्कीरण काल के बिना एक समय द्वारा ही जो घात होता है वह प्रनुसमयपवना है। (धवला १२ / ३२) अर्थात् प्रतिसमय कुल ग्रनुभाग के अनन्त बहुभाग का अभाव करना अनुसमापवर्तना है | शंका – प्रतुसमापवर्तन को अनुभाग काण्डकघात क्यों नहीं कहते ? - समाधान –— नहीं कहते; क्योंकि प्रारम्भ किये गये प्रथम समय से लेकर प्रन्तर्मुहूर्त काल के द्वारा जो घात निष्पन्न होता है वह अनुभागकाण्डकघात है; परन्तु उल्कीरण काल के बिना एक समय द्वारा ही जो घात होता है वह अनुममयापवर्तना हैं, दूसरे अनुसमयापवर्तना में नियम से अनन्तबहुभाग नष्ट होता है, परन्तु अनुभाग काण्डकघात में यह नियम नहीं है, क्योंकि छह प्रकार की हानि द्वारा काण्डकघात की उपलब्धि होती है । घवल १२ पृष्ठ ३२ एक-एक संग्रह कृष्टि में अनन्तर कृष्टि अनन्त होती हैं। क्योंकि मनकृष्टि के
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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