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गाथा २१७ ]
लब्धिसार
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अर्थ - - सम्यक्त्वमोहनीयकी श्रादि ( प्रथम ) स्थितिक्षय होने पर मिथ्यात्व के द्रव्यमेंसे सम्यक्त्व प्रकृति व मिश्रप्रकृति में गुणसंक्रमण द्वारा नहीं, किन्तु विध्यातसंक्रमण द्वारा दिया जाता है ।
विशेषार्थ - प्रथमोपशम सम्यक्त्व में गुणसंक्रमण द्वारा मिथ्यात्वका द्रव्य सम्यक्त्वप्रकृति व मिश्रप्रकृतिमें दिया जाता है, किन्तु द्वितीयोपशमसम्यक्त्व में विध्यातसंक्रमणके द्वारा मिथ्यात्वका द्रव्य सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति में दिया जाता है, ' क्योंकि गुणसंक्रमके कारणभूत जीवपरिणामोंकी विचित्रतावश यहां गुणसंक्रम नहीं होता, प्रतिसमय विशेषहीन क्रमसे विध्यातसंक्रम ही प्रवृत्त होता है तथा यहांसे लेकर ज्ञानावरणादि कर्मोंका स्थितिकांडकघात व अनुभागकाण्डकघात नहीं होता, परन्तु संयमरूप परिणामों के निमित्तसे ग्रवस्थित आयामवाली गुणश्रेणि प्रवृत्त रहती है, क्योंकि करण - परिणाम-निमित्तक गलितशेष गुणश्रेणिका यहां पर अन्त हो जाता है ।
अब द्वितीयोपशमसम्यग्वृष्टि के विशुद्धिका एकान्तानुबुद्धिकालका प्रमाण कहते हैं-
सम्मत्तप्पत्तीए गुणसंकमपूरणस्स कालादो | संखेज्जगुणं कालं विसोहिबडीहिं वदि हु ॥२१७॥
अर्थ -- प्रथमसम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाले जीवका गुणसंक्रमद्वारा जो पूरणकाल प्राप्त होता है उससे संख्यातगुणे कालतक यह उपशान्तदर्शनमोहनीय जीव विशुद्धि के द्वारा बढ़ता रहता है |
विशेषार्थ - - प्रथमसम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाले जीवका जो गुणसंक्रमकाल प्राप्त होता है उससे संख्यातगुणे कालतक यह जीव गुणसंक्रमके बिना भी प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धिकी वृद्धि होनेसे बढ़ता रहता है ।
१. तात्पर्य यह है कि द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि के प्रथमसमय से लेकर गुणसंक्रम न होकर विध्यातसंक्रम होता है । इसलिये उत्तरोत्तर विशेष होन क्रमसे मिध्यात्व के द्रव्यका सम्यक्त्व और मिश्रप्रकृति में संक्रम होता रहता है, ऐसा ज्ञातव्य है । ( ज. ध. पु १३ पृ. २०८ )
२.
३
४.
ज. पु १३ पृ. २०७ २०६१
और इसका काल भी अन्तर्मुहूर्त है ।
क. पा सु. पू. ६००, ज. ध. पु १३ पृ. २०८ |