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लब्धिसार
[ गाथा २१६
इसके पश्चात् अन्तर्मु तर्तकाल जाकर दर्शनमोहनीयका अन्तर करता है । वह इस प्रकार है- सम्यक्त्वप्रकृतिकी अन्तर्मुहूर्तमात्र प्रथमस्थितिको छोड़कर अन्तर करता है तथा मिथ्यात्व व सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतियोंकी उदयावलिमात्र प्रथम स्थितिको छोड़कर अन्तर करता है । इस अन्तरकरण में उत्कीर्ण किये जानेवाले प्रदेशाग्रको द्वितीयस्थितिमें नहीं स्थापित करता है, किन्तु बन्धका अभाव होनेसे सबको लाकर सम्यक्त्व प्रकृतिकी प्रथम स्थितिमें स्थापित करता है । सम्यक्त्व प्रकृतिके प्रदेशाग्रको अपनी प्रथमस्थितिमें ही स्थापित करता है । मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृतिके द्वितीयस्थितिसम्बन्धी प्रदेशाग्रका अपकर्षण करके सम्यक्त्व प्रकृतिकी प्रथम स्थितिमें देता है और अनुत्कीर्यमाण (द्वितीय स्थितिकी) स्थितियों में भी देता है । सम्यक्त्व प्रकृतिकी प्रथमस्थिति के समान स्थितियों में स्थित होकर मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियोंके जो प्रदेशाग्र हैं उन प्रदेशाग्रोंको सम्यक्त्व प्रकृति की प्रथम स्थितियों में संक्रमण कराता है । जबतक अन्तरकरणकालकी द्विचरमफालि प्राप्त होती है तबतक यही क्रम रहता है । पुनः अन्तिमफालिके प्राप्त होनेपर' मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियोंके सब अन्तरस्थितिसम्बन्धी प्रदेशाग्रको सम्यक्त्व प्रकृतिको प्रथमस्थितिमें ही स्थापित करता है । इसी प्रकार सम्यक्त्वप्रकृतिके अन्तर स्थितिसम्बन्धी प्रदेशको भी अपनी प्रथम स्थिति में ही देता है । द्वितीय स्थिति के प्रदेशाग्र भी तबतक प्रथमस्थितिको प्राप्त होता है जबतक कि प्रथम स्थिति में आवली और प्रत्यावलि शेष रहती हैं ।
अब प्रकररण प्राप्त दर्शनमोहके संक्रमसम्बन्धो ऊहापोह विशेष का कथन करते हैं-
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सम्मादिठिदिज्मी मिच्छद्दन्वादु सम्मसम्मिस्से ।
कमो सयमा विज्झादो संकमो होदि ॥ २१६ ॥
१. तात्पर्य यह है कि "चरमफालीका पतन होते समय मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व के अन्तर स्थिति सम्बन्धी द्रव्यको अपकर्षरण - संक्रमण के द्वारा प्रतिस्थापनावलो को छोड़कर जिसप्रकार पहले स्वस्थानमें भी देता रहा उसप्रकार इससमय नहीं देता है, किन्तु उनके अन्तर सम्बन्धी अंतिमफालि के द्रव्यको सम्यक्त्वकी प्रथमस्थिति में ही गुण गीरूप से निक्षिप्त करता है ।" इसीप्रकार सम्यक्त्व प्रकृतिके चरमफालि सम्बन्धी द्रव्यको श्रन्यत्र निक्षिप्त नहीं करता, परन्तु अपनी प्रथम
· स्थिति में हो निक्षिप्त करता है। (ज. व मूल पू. १८१३-१४ )
२.
घ. पु. ६ पृ २८६ - २६१ ।
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