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गाथा २७१ ] लब्धिसार
[ २१३ संज्वलन में संक्रमण करता है।
विशेषार्थ-गाथामें जो दो प्रकारका क्रोध कहा है उससे अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरणक्रोधका ग्रहण होता है, क्योंकि अन्यप्रकार सम्भव नहीं है । ये दोनों क्रोध संज्वलनशोधमें गुणसंक्रमणके द्वारा तबतक संक्रमित होते हैं, जब तक संज्वलनक्रोधकी प्रथमस्थिति तीन प्रावलिप्रमाण शेष रहती है, क्योंकि इस अवस्थाके भीतर उसमें उन दोनोंके संक्रमित होने में बिरोधका अभाव है। संक्रमणावलिरूपसे प्रथमावलिको व्यतीतकर पुनः दूसरी पावलिके प्रथम समयसे उपशमनावलि कालके द्वारा उस द्रव्यको उपशमाता है। अतः तीसरी आवलिको उच्छिष्ट वलिरूप से छोड़ देता है इस कारणमे तीन पावलियां शेष रहने तक संज्वलनक्रोधमें दो प्रकारके क्रोधका संक्रम विरोधको नहीं प्राप्त होता ।
क्रोधसंज्वलनको प्रथम स्थिति में परिपूर्ण तीन आवलियोंका अभाव होनेपर अर्थात् एक समस्या तीन प्रावलियों के शेष पद्धतेपद दो कारके कोना गंजदलामोष में संक्रम नहीं होता, किन्तु मानसंज्वलनमें संक्रम होता है, क्योंकि दूसराप्रकार सम्भव नहीं है।
उपशमनापलीके अन्तिम समयमें होने वाले क्रिया विशेषका कथन करते हैंकोहस्स पढमठिदी श्रावलिसेसे तिकोहमुवसंतं । ण य णवकं तत्थंतिमबंधुदया होति कोहस्स ॥२७१॥
अर्थ --संज्वलनक्रोधकी प्रथमस्थितिमें एक प्रावलि शेष रहनेपर तीनों प्रकार का क्रोध उपशान्त हो जाता है, किन्तु नवक समयप्रबद्ध उपशान्त नहीं हुआ उस समय संज्वलनक्रोधका अन्तिम बन्ध व उदय होता है ।
विशेषार्थ-- प्रत्यावलिके उदयावलिमें प्रविष्ट हो जाने पर संज्वलनशोधकी प्रथम स्थिति आवलिमात्र शेष रह जाती है। इसका नाम उच्छिष्टावलि है। उपशामनावलि बीत जाने पर उच्छिष्टावलिके प्रथम समयमें दो समयकम दो प्रावलि नवक समयप्रबद्धोंको छोड़कर संज्वलनक्रोधके शेष सभी प्रदेशपुज प्रशस्त उपशामनारूपसे उपशान्त हो जाते हैं । प्रतिसमय असंख्यातगुणी श्रेणीरूपसे उपशमित किये जाते
१. ज. प. पु. १३ पृ. २६३-६४ ।