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लब्धिसार
[ गाथा २७२ - २७३
हुए कमसे उपशान्त होते हैं । क्रोधसंज्वलन के दो समयकम दो आवलिप्रमाण नक्क समयप्रबद्धों को उपशमाने की विधि पुरुषवेदके समान है ।
जब क्रोध संज्वलनकी प्रथमस्थिति में एक समयकम एक आवलि शेष रहती है तभी क्रोध संज्वलनके बन्ध और उदय व्युच्छिन्न हो जाते हैं, क्योंकि इस पूर्व के समय में जब पूर्ण एक ग्रावलि प्रथम स्थितिमें शेष रह जाती है तब संज्वलनकोधका अन्तिम बन्ध व उदय होकर बन्ध व उदयकी व्युच्छित्ति हो जाती है । अतः अगले समय में संज्वलन क्रोधका प्रथम निषेक संज्वलनमान में स्तिबुकसंक्रम द्वारा संक्रामित हुए रहने से उसमें से एक-एक निषेकके कम हो जानेके कारण उच्छिष्टावलिमें से एक समयकम किया है ।
श्रथानन्तर पांच गाथाओं में मान त्रयका उपशम विधान निरुपित करते हैंसे काले प्रायस्ल य पमद्विदिकारदगो होदि । पढमद्विदिम्मि दव्वं असंखमुक्किमे देदि ॥ २७२ ॥ पडर्माट्ठदिसीसादो विदियादि म्हि य असंखगुणहीणं । तत्तो विसेसहीणं जाव अइच्छावरणमपत्तं ॥ २७३॥
अर्थ -- उसी काल में संज्वलमानकी प्रथमस्थितिका कर्त्ता व भोक्ता होता है । प्रथमस्थितिमें द्रव्य असंख्यातगुणं क्रमसे दिया जाता है । द्वितीय स्थिति के श्रादिमें अर्थात् प्रथम निषेकमें द्रव्य प्रथमस्थितिके शीर्षके द्रव्यसे असंख्यातगुणा हीन दिया जाता है । उसके पश्चात् प्रतिस्थापनावलि प्राप्त होने तक विशेषहीन क्रमसे दिया जाता है।
विशेषार्थ – एक समग्रकम उच्छिष्टावलिके अतिरिक्त संज्वलनकोधकी प्रथम स्थितिको गलाकर तथा उसके बन्ध व उदयकी व्युच्छित्ति करके उसी समय संज्वलन - मानका वेदक व प्रथमस्थितिका कारक ( करनेवाला ) होता है । द्वितीयस्थिति में स्थित संज्बलनमानके प्रदेशपुञ्जको पकर्षित कर उदयादि गुणश्रेणिरूप से निक्षिप्त करता हुआ उसी समय प्रथम स्थितिका करने वाला होकर मानका वेदक होता है । द्वितीय स्थिति के प्रदेशपु ंजको प्रपकर्षणभागहारका भागदेकर एक भागको पकर्षितकर मानसंज्वलनकी प्रथम स्थितिको करता हुआ उदय में अल्प प्रदेशपु जको देता है । तदनन्तर समय में असंख्यातगुणे प्रदेश को देता है । इसप्रकार श्रसंख्यातगुणे श्रेणिक्रमसे प्रथम स्थितिके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक देता है । यहां पर प्रथम स्थितिकी लम्बाई श्रन्तर्मुहूर्त