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लब्धिसार
[ गाथा ३
सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेके योग्य होता है' । विमर्शकका अर्थ है किसी तथ्यका अनुसंधान, किसी विषयका विवेचन या विचार ।
सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि अथवा वेदकसम्यग्दृष्टिजीव प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि इन जीवोंके प्रथमोपशमसम्यक्त्वरूप परिणमन होनेकी शक्तिका प्रभाव है । उपशमश्र पिर चढ़नेवाले वेदकसम्यग्दृष्टिजीव उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करनेवाले होते हैं, किन्तु उस सम्यक्त्वका 'प्रथमोपशमसम्यक्त्व' यह नाम नहीं है, क्योंकि उस उपशमश्रं शिवाले उपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्ति सम्यक्त्वपूर्वक होती है इसलिये प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करनेवाला मिथ्यादृष्टि ही होना चाहिए' ।
अथानन्तर सम्यक्त्वोत्पत्तिसे पूर्व मिथ्यात्वगुणस्थान में जो पांचलब्धियां होती हैं उनका व्याख्यान करते हैं
'यसमियविलोडी देखाउम्मकरणलद्धि य ।
चत्तारि वि सामराणा करणं सम्मत्तचारिते ॥ ३ ॥
-क्षयोपन, विशुद्धि, देशना प्रायोग्य व करालब्धि ये पांच लब्धियां हैं इनमें से चार लब्धियां तो सामान्य हैं तथा करणलब्धि के होनेपर ( उपशम ) सम्यक्त्व या चारित्र अवश्य होता है ।
विशेषार्थ - यहां गाथा में जो 'सामन्या' शब्द है इसका प्रयोग आगे गाथा ७ व १५ में भी हुआ है, किन्तु प्रत्येकगाथा में 'सामण्णा' शब्द विभिन्न विषयोंका द्योतक है । यहांपर 'करण' सम्मत्तचारिते' से यह स्पष्ट हो जाता है कि करणलब्धिसे पूर्वकी
१. ज. ध. पु. १२ पू. २०३ २०४
२. सम्यग्दृष्टिरेव द्वितीयोपशमं प्राप्नोति ' ध. पु. १ टीका; स्वामिकार्तिकेयानुप्रक्षा गा ४८४ की टीका ।
२११-१२; मूलाचार अ. १२ मा ५०५ की
३. घ. पु. ६. पू. २०६-७ व ध पु. १ पृ ४१० ।
४.
ध. पु ६ पृ. २०५, परं तत्र चतुर्थचरणे "करणं पुण होइ सम्मत्त" इति पाठः । इयमेव गाथा धवला जीवस्थानचूलिकायां (षष्ठे पुस्तके) अध्यागता, ध. पु. ६ पृ. १३६ गो जी. गा. ६५१ ।.
५. एदाओ चत्तारिवि लद्धोश्रो भवियाभवियमिच्छाइट्ठीगं साहारणाओ ।.