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गाथा २ ]
लब्धिसार शंका-उनसे ('उपरिमग्रे बेयकसे) आगे अनुदिश और अनुत्तरविमानवामीदेवोंमें प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्ति क्यों नहीं होती ?
समाधान-- अनुदिश व अनुत्तरविमानोंमें प्रथमोपशमसम्यक्त्वको उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि उनमें सम्यग्दृष्टिजीवोंके ही उत्पन्न होनेका नियम है ।
आभियोग्य और किल्वि षिकादि अनुत्त मदेवोंमें भी यथोक्त हेतुओंका सन्निधान होनेपर प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्ति अविरुद्ध है' । तिर्यञ्च व मनुष्यों में गर्भजको ही प्रथमोपशमसम्यक्त्व होता है, सम्मूर्छनको नहीं होता।
___ दर्शनमोहके उपशामक जीव विशुद्धपरिणामी ही होते हैं, अविशुद्धपरिणामी नहीं । अधःप्रवृत्त करणके पूर्व ही अन्तर्मुहुर्तसे लेकर अनन्तगुणी विशुद्धि प्रारम्भ हो जाती है। ___शंका-ऐसा किस कारणसे है ?
___ समाधान-जो जीव अतिदुस्तर मिथ्यात्वरूपी गर्तसे उद्धार करनेका मनवाला है, जो अलब्धपूर्व सम्यक्त्वरूपी रत्नको प्राप्त करनेकी तीव्र इच्छाबाला है जो प्रतिसमय क्षयोपशमलब्धि और देशनालब्धि आदि के बलसे वृद्धिंगत सामर्थ्यवाला है और जिसके संवेग व निर्वेदसे उत्तरोत्तर हर्षमें वृद्धि हो रही है उसके प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धिकी प्राप्ति होनेका निषेध नहीं है ।
जिसके द्वारा उपयुक्त होता है उसका नाम उपयोग है । अर्थ के ग्रहणरूप आत्म परिणामको भी उपयोग कहते हैं । उपयोगके साकार और अनाकारके भेदसे दो प्रकार हैं। इनमें से साकार तो ज्ञानोपयोग और अनाकार दर्शनोपयोग है, इनके क्रमसे मतिज्ञानादिक और चक्षुदर्शनादिक भेद हैं । दर्शनमोहका उपशामकजीब साकारोपयोगसे परिणत होता हुआ प्रथमोपशमसम्यक्त्वको उत्पन्न करता है, क्योंकि प्रविमर्शक और सामान्यमात्रग्राही चेतनाकार दर्शनोपयोगके द्वारा विमर्शकस्वरूप तत्वार्थश्रद्धानलक्षण सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिके प्रति अभिमुखपना नहीं बन सकता। इसलिए मति-श्र तप्रज्ञान ( कुमति व कुश्रु तज्ञान ) से या विभंगज्ञानसे परिणत होकर यह जीव प्रथमोपशम
१. ज.ध. पु. १२ पृ. २६८ से ३०० । २. ज. प. पु. १२. पृ. २००।