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लन्धिसार
गाथा २४१-२४२ ]
[ १६३ घातिकरण नहीं बन सकता।
शङ्का-चार संज्वलन और पुरुषवेदके अनुभागबन्धका यहां पर देशघातिकरण क्यों नहीं कहा ?
समाधान-नहीं, क्योंकि उनका अनुभागबन्ध पहले ही संयतासंयत गुणस्थानसे लेकर देशघाति द्विस्थानरूपसे प्रवर्तमान है अतः इस स्थलपर उनके देशघातिपनेके प्रति विसंवाद उपलब्ध नहीं होता ।
संसार अवस्था में सर्वत्र अपकणि और उपशमश्रेरिंगमें देशघातीकरणके पूर्व सर्व जीब विवक्षित कर्मोके सर्वघाति अनुभागको ही बांधते हैं । इन कर्मोके देशघाति हो जाने पर भी मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध सबसे अल्प होता है। उससे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकर्मका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा होता है। उससे नाम व गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा होता है । उससे वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता है।
अब चार गाथाओं में अन्तरकरण का निरुपण करते हैंतो देसघादि करणादुर तु गदेसु तत्तियपदेसु । इगिवीसमोहणीयाणंतरकरणं करेदीदि ।।२४१।।
अर्थ-उपर्युक्त देशघातिकरणसे ऊपर उतने ही अर्थात् संख्यातहजार स्थितिबन्धोंके व्यतीत होनेपर मोहनीयकर्मकी इक्कीस प्रकृतियोंका अन्तरकरण करता है ।
विशेषार्थ- इस देशघातिकरणके पश्चात् इस अल्पबहुत्व विधिसे संख्यातहजार स्थितिबन्धोंके व्यतीत होनेपर अन्तरकरण करने के लिये प्रारम्भ करता है। अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, संज्वलन क्रोध-मान-माया-लोभ इन बारह कषायोंका तथा हास्यरति, अरति-शोक, भय-जुगुप्सा, स्त्री-पुरुष-नपुंसकवेद इन नव नोकषायोंका अन्तरकरण करता है, अन्य कर्मोंका अन्तरकरण नहीं करता ।
संजलणाणं एक्कं वेदाणेकं उदेदि तं दोगहं । सेसाणं पढमहिदि ठवेदि अंतोमुहुत्त भावलियं ॥२४२॥
अर्थ-संज्वलन कषायों में से जिस एक संज्वलनकषायके उदयसे तथा तीनों बेदों में से जिस वेदके उदयसे श्रेणि चढ़ता है उनकी प्रथमस्थिति अन्तर्मुहूर्त होती है; शेष प्रकृतियोंकी आवलिमात्र प्रथमस्थिति होती है ।