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________________ १ लब्धिसार [ गाथा २४३-२४४ विशेषार्थ-उदयरूप दोनों प्रकृतियों की अन्तर्मुहूर्तप्रमाण प्रथमस्थितिको छोड़ कर ऊपरकी कितनी ही स्थितियोंको ग्रहणकर अन्तर करता है। अनुदयरूप दो वेदका उपशामनकाल तथा सात नोकषायोंका उपशामनकाल, इन कालोंका जितना योग होता है उतनी उदयरूप पुरुषवेदकी प्रथम स्थितिका काल है, किन्तु उदयरूप कषायकी प्रथम स्थितिका काल इससे अधिक है | जिन प्रकृतियोंका उदय नहीं है उन प्रकृतियों की उदयावलिप्रमाण स्थितियों को छोड़कर आवलि बाह्य स्थितियोंको अन्तरके लिए ग्रहण करता है। उरि सम उक्कीरइ हेट्ठा विसमं तु मज्झिमपमाणं । तदुपरि पढमठिदीदो संखेज्जगणं हवे णियमा ॥२४३।। अर्य-अन्तरसे ऊपरकी सर्व प्रकृतियोंके निषेक सदृश हैं, किन्तु अन्तरके नीचे उदय व अनुदयरूप प्रकृतियोंकी प्रथम स्थिति के निषेक विषम हैं। प्रथम स्थिति और उपरिम स्थिति के मध्यका प्रमाण अर्थात् अन्तरायाम प्रथम स्थितिसे संख्यातगुणा है ऐसा नियम है। विशेषार्थ--उदयरूप और अनुदयरूप सभी कषायों तथा नोकषायोंके अंतरकी अन्तिम स्थिति सदश ही होती है, क्योंकि द्वितीय स्थितिके प्रथम निषेकका सर्वत्र सदशरूपसे अवस्थान देखा जाता है, इसलिए ऊपर अन्तर समस्थितिवाला है, किन्तु नीचे अन्तर विसदृश होता है, क्योंकि अनुदयस्वरूप सभी प्रकृतियों के अन्तरके सदृश होने पर भी उदयस्वरूप अन्यतरवेद और अन्यतर संज्वलनकषायकी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण प्रथम स्थितिसे परे अन्तर और प्रथमस्थितिका अवस्थान देखा जाता है। इसलिये प्रथम स्थितिके विसदृशपनेका प्राश्रयकर नीचे विषमस्थिति अन्तर होता है यह कहा है। अंतरपढमे अराणो ठिदिबंधो ठिदिरसाण खंडो य । एयट्ठिदिखंडुक्कीरणकाले अंतरसमत्ती ॥२४४॥ १. ज. प. पु. १३ पृ. २५३-५४; क. पा सु. पृ. ६८६ । २. अभिप्राय यह है कि उदीयमान की प्रथमस्थिति अन्समुहूर्त होती है, परन्तु अनुदयस्वरूप दो वेद व ग्यारहकषायों की एक प्रावली प्रमाण प्रथम स्थिति होती है इसलिये इस प्रथम स्थिति के विषम होनेसे अधोभाग में अन्तरमें विषमता आ जाती है।
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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