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गाथा २४५
लब्धिसार
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अर्थ-अन्तरकरण करने के प्रथम समय में अन्य स्थितिबन्ध, अन्य स्थितिकांडक, अन्य अनुभागकाण्डक होता है । एक काण्डकोत्कीरणकालमें अन्तर कार्यकी समाप्ति हो जाती है।
विशेषार्थ-जिस समय अन्त रकरण करनेका प्रारम्भ किया उसी समय पूर्वके स्थितिबन्ध, स्थितिकांडक और अनुभागकांडक समाप्त हो जानेके कारण अन्य स्थितिबंधको असंख्यातगुणा हीनरूपसे बांधने के लिए आरम्भ किया, अन्य स्थितिकांडक पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाणवाला ग्रहण किया और शेष अनुभागके अनन्त बहुभाग को ग्रहण किया । हजारों अनुभागकाण्डकोंको भीतरकर होनेवाले स्थितिकाण्डककालके समान अंतरकरणका काल होता है। अतः एक स्थिति कांडकोत्कीरणकालके द्वारा अंतरको सम्पन्न करता है।
अब तीन गाथाओं के द्वारा अन्तरकरण करने को विधि बतलाते हैंअंसरहेदुक्कीरिददव्वं तं अंतरम्हिण य देदि । बंधं साणंतरजं बंधाणं विदियगे देदि ॥२४५।। उदयिल्लातरजं सगपढमे देदि बंधविदिये च । उभयाणंतरदव्वं पढमे विदिये च संछुहदि ॥२४६।। अणुभयगाणंतरजं बंध ताणं च विदियगे देदि। एवं अंतरकरणं सिज्झदि अंतोमुहुत्तेण ॥२४७॥
अर्थ-अन्तरकरण करने के लिए उत्कीरित द्रव्यको अन्तरायाममें नहीं देता है, किन्तु जो कर्मप्रकृति मात्र बंधती ही हैं उनके उत्कीरित द्रव्यको द्वितीय स्थितिमें देता है । जो कर्मप्रकृतियां उदय प्राप्त हैं उनको प्रथमस्थिति में देता है और द्वितीय स्थितिमें भी देता है। जिन कर्मप्रकृतियोंका बंध भौर उदय दोनों हैं उनके उत्कीरित द्रव्यको प्रथम और द्वितीय दोनों स्थितियोंमें देता है। जिन कर्मप्रकृतियोंका न तो बंध होता है और न उदय है उन प्रकृतियोंके उत्कीरित द्रव्यको द्वितीय स्थितिमें देता है । इसप्रकार अन्तर्मुहूर्तकाल द्वारा अन्तरकरणकी सिद्धि (समाप्ति) होती है।
१. ज.ध. पु. १३ पृ. २५५-५६ ।