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गाथा ७-८ ]
लब्धिसार अब प्रायोग्यल ब्धिका स्वरूप कहते हैं
अंतोकोडाकोडी विट्ठाणे ठिदिरसाण जं करणं । पाउगल द्धिणामा भब्बाभब्बेसु सामण्णा ॥७॥
अर्थ-कर्मोकी स्थितिको अन्तःकोडाकोड़ी तथा अनुभागको द्विस्थानिक करने को प्रायोग्य लब्धि कहते हैं । यह लब्धि भव्य और अभव्यके समानरूपसे होती है ।
विशेषार्थ-अंतःकोड़ाकोड़ीसागर कर्मस्थिति रह जानेपर संज्ञीपंचेन्द्रियपर्याप्तजीबके प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी प्राप्तिकी योग्यता होती है । इस प्रायोग्यलब्धिमे इतनी विशुद्धता हो जाती है कि सर्वकर्मोकी उत्कृष्टस्थितिका काण्डकघातके द्वारा घातकरके अन्तःकोड़ाकोड़ीसारसाग रियसि कर देता है तथा अप्रशस्तप्रकृतियोंके चतुःस्थानीय अनुभागको घातकरके द्विस्थानीयअनुभागमें स्थापन कर देता है अर्थात् घातियाकर्मोका अनुभागलता-दारुरूप और अप्रशस्त अघातियाकर्मोका अनुभाग निम्ब-कांजीररूप द्विस्थानगत शेष रह जाता है, किन्तु प्रशस्तप्रकृतियोंका अनुभाग गुड़-खांड-शर्करा और अमृतरूप चतुःस्थानीय ही होता है, क्योंकि विशुद्धिके द्वारा प्रशस्त प्रकृतियोंके अनुभागका धात नहीं होता है । इन अवस्थाोंके होनेपर करण अर्थात् पंचम करपलब्धि होनेके योग्य भाव पाए जाते हैं । इतनी विशुद्धि भव्य सिद्धिक और अभव्यसिद्धिक इन दोनों प्रकारके जीवोंके हो सकती है; इसबातको बतलानेके लिए गाथा में 'भवाभन्वेसु सामण्णा' पद दिया है। इसमें किसी भी प्राचार्यको विवाद नहीं है ।
अथानन्तर प्रसंगप्राप्त प्रथमोपशमसम्यक्त्वग्रहणकी योग्यताका प्रतिपादन करते हैं
जेवरदिदिबंधे जेट्टवरदिदितियाण सत्ते य । ण य पडिवज्जदि पढमुवसमसम्म मिच्छजीवो हु ॥८॥
गाथार्थ- उत्कृष्ट अथवा जघन्यस्थितिबन्ध करनेवाले तथा स्थिति-अनुभाग व प्रदेश इन तीनोंके उत्कृष्ट या जघन्य सत्त्ववाले मिथ्यादृष्टिजीवके प्रथमोपशमसम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता।
१. ध, पु. ६ पृ. २०६ एवं ध. पु. १२ पृ. १८६ ३५ । २ ध, पु. पृ. २०५ ।