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क्षपणासार
[ गाथा ३२६-३३०
अब म सकदेव के उपशमका विनाश व उससमय होनेवाली क्रिया विशेष
गाथाओं में कहते हैं
संडवसमे पढमे मोद्दिगिवीसाथ होदि पुणसेडी । अंतरकदोत्ति मज्झे संखाभागासु सीदा ॥ ३२६ ॥ मोहस्स असंखेजा वस्तयमाणा इवेज्ज ठिदिबंधो । ताई तस्स य जादूं बंधं उदयं च दुट्ठाणं ॥ ३३० ॥
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अर्थ:- नपुंसकवेद अनुपशान्त हो जानेपर २१ प्रकृतियोंको गुणश्र ेणी होती है । युहांसे अन्तरकरण करनेके स्थानको प्राप्त होनेतक जो मध्यवर्तीकाल है उसकाल के संख्यात बहुभाग बीत जानेपर मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध प्रसंख्यातप्रमारा होने लगता है । उसीसमय मोहनीयकर्मका अनुभागबन्ध व उदय द्विस्थानीय हो जाता है ।
: विशेषार्थ:-- पूर्वोक्त गाथा कथितकाल के पश्चात् संख्यात सहस्र स्थितिबन्धों के बीत जानेपर नपुंसकवेद अनुपशान्त हो जाता है । उसोसमय नपुंसक वेद के द्रव्यको अपकर्षित करके उदयावलिके बाहर गुराश्रेणि श्रायाममें, अन्तरायाम में और द्वितीयस्थिति में निक्षिप्त करता है । यह गुण रिण निक्ष ेप अन्य बीस प्रकृतियोंके गलितावशेष गुराणि निक्षेपके सदृश होता है ।
नपुंसकवेद के अनुपशान्त हो जानेपर जबतक अन्तर करनेके कालको नहीं प्राप्त होता इस मध्यवर्ती कालके संख्यात बहुभागप्रमारणकाल व्यतीत हो जानेपर मोहनीयकर्मका असंख्यातवर्षवाला स्थितिबन्ध होने लगता है । उपशमश्र णि चढ़नेवाला जिस स्थानपर ( अवस्था में ) अन्तरकरण करके मोहनीयकर्मका संख्यातवर्षवाला स्थितिबन्ध आरम्भ करता है, उतरते समय उस स्थानको अन्तर्मुहूर्त द्वारा नहीं प्राप्त करता कि इस अवस्था में वर्तमान इस जीव के प्रतिपातकी प्रधानता से मोहनीय कर्मका असंख्यातवर्ष प्रमाण स्थितिबन्ध प्रारम्भ हो जाता है। क्योंकि चढ़नेवाले की अपेक्षा उतरने वाले का काल स्तोक है, कारण कि चढ़नेवाले के सर्वकालों की अपेक्षा उतरनेवाले के सर्वकाल हीन होते हैं जैसे चढ़नेवाले के सूक्ष्मसाम्पराय के कालसे उतरने वालेका सूक्ष्मसाम्परायकाल अन्तर्मुहूर्त होन होता है । इसप्रकार चढ़ने श्रीर उतरने सम्बन्धी सर्वकालों में परस्पर विशेष अधिकता व होनता लगा लेनी चाहिए |
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