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गाथा ३२- 1 क्षपणासार
[ २६६ तक्काले दुट्टाणं रसबंधो ताण देसवादीणं ॥३२८॥
पर्थः-स्त्रीवेदके अनुपशान्त होनेके प्रथम समय में बीस कषायोंकी गुणश्रेणी होती है। यहांसे लेकर नपुसकवेदके उपशान्त रहनेतक कालके संख्यात बहुभाग बीत ३ जानेपर तीन घातियाकर्मोंका स्थितिबन्ध नियमसे असंख्यातवर्षप्रमाण हो जाता है और उसीसमय उनकी देशघाति प्रकृतियोंका अनुभागबन्ध द्विस्थानिक हो जाता है ।
विशेषार्थः—पूर्वोक्त गाथा कथित कालसे आगे सहस्रों स्थितिबन्धोंके व्यतीत होनेपर स्त्रोबेदको एकसमयमें अनुपशान्त करता है । उसोसमयसे स्त्रीवेदका द्रव्य उत्कर्षण प्रादिके योग्य हो जाता है। प्रथमसमय में ही अनुदयरूप प्रकृति स्त्रीवेदके द्रव्यको अपकर्षित करके उदयावलिके बाहरसे अन्य १६ प्रकृतियोंके समान गलिहावशेष ... गुणश्रेणि आयाममें, अन्तरायाममें और द्वितीय स्थितिमें निक्षिप्त करता है। मोहनीय कर्मको पूर्वोक्त १६ प्रकृतियों (१२ कषाय व ७ नो कषाय) के द्रव्य को भी अपकर्षित करके इसीप्रकार निक्षिप्त करता है । इसप्रकार बीस प्रकृतियोंको गलितावशेष गुणश्रेणि होती है।
स्त्रीवेद अनुप शान्त होनेपर जबतक नपुसकवेद उपशान्त रहता है तबतक इस मध्यवर्तीकालके संख्यात बहुभागोंके बीतनेपर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातियाकर्मों का स्थितिबन्ध असंख्यातवर्ष हो जाता है। उससमय में मोहनोयकर्मका स्थितिबन्ध सबसे अल्प, तीन धातियाकर्मोंका असंख्यातगुणा, इससे असंख्यातगुणा नाम ब गोत्रका और उससे विशेष अधिक अर्थात् डेढ़गुणा वेदनोयकर्मका स्थितिबन्ध होता है। जिससमय तीन घातियाकर्मोका असंख्यातवर्षकी स्थितिवाला बन्ध होता है उससमय मति-श्रु त-अवधि-मनःपर्यय इन चार ज्ञानावरणीय, चक्षु-अचक्षुअवधि इन तीनप्रकारके दर्शनावरणीय और पांचों (दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य) अन्तरायकर्म अनुभागबन्धको अपेक्षा लता, दारुरूर द्विस्थानीय अनुभागबन्धवाले हो जाते हैं।' १. जयधधल मल प. १९०४-५ । प्रारोहक संख्यातवषप्रमाण स्थितिबन्धके प्रारम्भके समकालमें
ही इन कर्मोका एक स्थानिक बन्ध उत्पन्न हो गया; यहाँ भी संख्यातवर्ष स्थितिबन्धक अवसान को प्राप्त होनेपर असंख्यातबर्षीय स्थितिबन्धके प्रारम्भके समकालमें ही एक स्थानिकबन्ध समाप्त होगया, यहांसे लेकर उन सकल प्रकृतियोंका द्विस्थानीक ही अनुभाग बंधता है। इतना विशेष है ।
(ज. प. मूल पृ. १९०५)