SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 478
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा २०४ ] क्षपणासाय [ १७१ अर्थ- सूक्ष्म साम्परायमें संख्यातहजार स्थिति काण्डक व्यतीत होने पर अन्तिमस्थितिकाण्डकसे पूर्वगुणधेरिण आयामके संख्यातवेंभागमात्र आयाममें गुणधेरिण करता है। विशेषार्थ:- सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान में संख्यातहजार स्थितिकाण्डकों को ग्रहण करनेवाला, सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समय में जो गुणश्रेरािनिक्षेप सूक्ष्म माम्परायगुणस्थान के कालसे विशेष अधिक था उसके संख्यातवेंभाग अनस्थितियोंको घातके लिए ग्रहण करता है अर्थात् सूक्ष्म साम्परायकालप्रमाण स्थितियोंको छोड़कर शेष जितने भी अधिक निक्षेप थे उन सबको काण्डका रूपसे ग्रहण करता है। मात्र इतनी ही स्थितियों को नहीं ग्रहण करता, किन्तु गुणश्रेरिणशीष (गुणगि निक्षेप) से ऊपर संख्यातगुणी स्थितियोंको धरमस्थितिकाण्डकरूपसे ग्रहण करता है, क्योंकि उनके ग्रहणबिना गुणश्रेणिशोषका काण्डकरूपसे ग्रहण होना असम्भव था । अतः गगाणि शीर्षके साथ बारिम अन्तर्गवर्न प्रमाण संख्यातगुणी स्थितियोंका चरमस्थितिकाण्डको ग्रहण होता है। चरमस्थितिकाण्डकके प्रथमसमयमें प्रथमफालि के लिए द्रव्य का अपकर्षणकरके उदयस्थिति में थोड़े प्रदेशाग्रको देता है, उससे अनन्तरस्थितिमें असंख्यातगुणा प्रदेशाग्र देता है । सूक्ष्म साम्परायगुणस्थानके अन्तिमसमय तक इस असंख्यातगुणश्रेणिरूपसे निक्षेप होता है वही अब गुरगश्रेणोशीर्ष है, उससे ऊपर अनन्तरस्थितिमें असंख्यातगुणाहीन प्रदेशाग्र दिया जाता है, उसके पश्चात् पुगतन गुग्गश्रेणिशीर्षतक हीन प्रदेशाग्र दिया जाता है । उससे अनन्तर उपरिम एकस्थितिम असख्यातगुणाहीन प्रदेशाग्र दिया जाता है, उससे आगे घरमस्थितिसे आवलि काल पूर्वतक विशेषहीन विशेषहीन प्रदेशान दिया जाता है । इसी प्रकार द्वितोयादि फालियोंमें भी प्रदेशाग्र देता है । प्रदेशाग्रनिक्षेप यह क्रम चरमस्थितिकाण्डकको द्विचरमफालिपर्यन्त रहता है । चरमस्थितिकाण्डकको चरमफालिके द्रव्यको ग्रहणकर उदयस्थितिमें स्तोक प्रदेशाग्र देता है, उससे अनन्तरस्थितिमें असंख्यातगुणे प्रदेशाग्रको देता है । इसप्रकार सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानको चरमस्थितितक असंख्यातगुणो श्रेरिणरूपसे प्रदेशाग्रका निक्षेप करता है । द्विधरमस्थितिमें जितने प्रदेशाप्रका निक्षेप करता है उससे पल्योपमके असंख्यात प्रथमवर्गमूलगुणे (पल्यका प्रथमवर्गमूल असंख्यात) प्रदेशाग्र को चरमस्थितिमें निक्षिप्त करता है। पूर्वगुणाकार पस्योपमके तत्प्रायोग्य असंख्यातवेंभागप्रमाण है अर्थात् प्रथमस्थितिसे पल्योपमके असंख्यासवेंभागगुणा प्रदेशाग्न द्वितीयस्थितिमें देता है उससे भी पल्योपमके असंख्यातभागगुणा प्रदेशाग्र तृतीयस्थितिमें देता है । इसप्रकार यह क्रम द्विधरमस्थितितक यह क्रम रहता है अतः द्विधरमस्थिति तक
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy