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________________ क्षपणासाब १७२ ] [ गाथा २०५ अन्तिमफालिका असंख्यातवेंभागप्रमाण द्रव्य और चरमस्थिति में शेष बहभाग प्रदेशान देता है इसीलिये गुणाकार पल्योपमके असंख्यात प्रथमवर्गमूलप्रमाण हो जाता है । इसप्रकार चरमस्थितिकाण्डकके निर्लेपित होनेपर मोहनीयकर्मको स्थितिघातादि क्रिया नहीं होती, मात्र अधःस्थितिगलनाके द्वारा अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थितियां निर्जराको प्राप्त होती हैं। एत्तो सुहुमंतोत्ति य, दिज्जस्स य दिस्समाणगस्त कमो। सम्मत्तचरिमखंडे. तक्कदिकज्जेवि उत्तं च ॥२०५॥५६६॥ अर्थ-इसप्रकार यहांसे लेकर सूक्ष्म साम्पराधिक गुणस्थानके चरमसमयपर्यन्त देयद्रव्य और दृश्यमानद्रव्यका क्रम जानना। जैसे क्षायिकसम्यक्त्वविधान में सम्यक्त्वमोहनीयके चरमस्थितिकाण्डकमें अथवा उसको कृत्य कृत्यावस्थामें (कृतकृत्यवेदक सम्यक्वकी अवस्थामें) कहा था वैसे ही आमना । विशेषार्थ-यहां मोहनीयकर्म को सर्वस्थितिमें सूक्ष्मसापरायका जितना काल अवशिष्ट रहा उतनेप्रमाण स्थितिबिना अवशेष सर्वस्थितिका घात चरमकाण्डकद्वारा किया जाता है वहां इस काण्डककी स्थितिसम्बन्धी निषेकों के द्रव्य में जो द्रव्य अन्तिमकाण्डकोत्कीरणकालके प्रथमसमयमें ग्रहण किया उसको प्रथमकाल कहते हैं। इसीको स्पष्ट करते हैं प्रथमफालिके द्रव्यको अपकर्षणकरके उसको पत्यके असंख्यातवेंभागका भाग देकर उसमें बहुभाममात्र द्रव्यको यहां (प्रथमफालिके पतन समय) सम्बन्धो सूक्ष्मसाम्परायकालके चरमसमयपर्यन्त तो गुणश्रेणिआयामरूप प्रथमपर्वमें देता है। वहां उसके (गुणश्रेणियामके) उदयरूप प्रथमनिषेकमें स्तोक उससे द्वितीयादि निषेकों में असंख्यात. गुणे क्रमसे द्रव्य दिया जाता है (यहां सूक्ष्म साम्परायगुणस्थानके चरमसमयको गुणधे णोशीर्ष कहते हैं) तथा अवशेष एकभागप्रमाणे द्रव्यको पल्य के असंख्यातवेंभागका भागदेकर बहुभागप्रमाण द्रव्य गुणवेणीशोर्षसे ऊपर जो गुणश्रोणिायाम या उसके शोर्षपर्यन्त द्वितीयपर्व में दिया जाता है, यह द्रव्य गुणवेणोशोर्ष में दिये गए द्रव्यसे असंख्यात. गुणा कम है। उसके ऊपर द्वितीयादि निषेकोंमें चयरूपसे होन क्रमयुक्त द्रव्य दिया १. जयधवल मूल पृष्ठ २२१७-१८ । जयधवल पु० १३ पृष्ठ ७६ ।
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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