________________
११६ 3
[ गाथा १६६-१९७ दिया जाता है । चरमफालिके पतन होनेपर गुणश्रेणिके बिना सूक्ष्मसाम्परायिक स्थितियोंका द्रव्य एकगोपुच्छाकार रूप हो जाता है । प्रथमस्थितिकाण्डककी चरमफालिके पतन होने के अनन्तर समय में द्वितीयस्थितिकाण्डकका प्रारम्भ हो जाता है, किन्तु इसका आयाम प्रथम स्थितिकाण्डकायामसे स्तोक है । द्वितीयस्थितिकाण्डकसे अपवर्षण करके भी प्रदेशाग्र उदयस्थिति में दिया जाता है वह अल्प है इससे आगे असंख्यातगुणीश्रेणिके क्रम से गुणश्रेणिशीर्ष से अनन्तर उपरिम एकस्थितितक द्रव्य दिया जाता है, उससे आगे गोपुच्छ विशेष से होन प्रदेशाग्र दिया जाता है । यही क्रम सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानके मोहनीय कर्मके स्थितिघात होनेतक रहता है' ।
दक्षपणः सार
अंतरपदमटिदित्तिय संखगुणिदक्कमेण दिस्सदि हु । ही एकमेा असंखेज्जेण गुणं तो विद्दीयकमं ॥ १६६ ॥ ५८७॥
अर्थ — अन्तरकी प्रथम स्थितिपर्यन्त प्रदेशाग्र असंख्यातगुणे क्रमसे दिखाई देते हैं. इससे आगे चरमअन्तरस्थितितक विशेषहीन क्रमसे प्रदेशाग्र दिखाई देते हैं, तदनन्तर प्रसंख्यातगुणे और तत्पश्चात् विशेषहीन क्रमसे प्रदेशाग्र दिखाई देते हैं ।
विशेषार्थ- - इस गाथा में प्रथमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायके दृश्यमान प्रदेशाग्रकी श्रेणिप्ररूपणा बतलाई गई है । प्रथमसमय में सूक्ष्मसाम्परायकी उदयस्थिति में अल्प प्रदेशा दिखाई देते हैं, द्वितीयस्थिति में असंख्यातगुणे प्रदेशान दिखाई देते हैं । इसप्रकार यह श्रसंख्यातगुणाक्रम गुणश्रेणी शीर्षतक जानता तथा उससे आगे चरम अन्तरस्थितितक विशेषहीन - विशेषहीन प्रदेशाग्र दिखाई देता है । तदनन्तर असंख्यातगुणे प्रदेशान दिखाई देते हैं, तत्पश्चात् विशेषहीन प्रदेशान दिखाई देते हैं। यह क्रम तबतक रहेगा जबतक कि fe प्रथमस्थितिकाण्डक के समाप्त होनेका चरमसमय प्राप्त नहीं होता' ।
कंड रिमठिदी सविसेसा चरिमफालिया तस्स । संखेज्जभागमंतरठिदिम्हि सव्वे तु बहुभागं ॥ १६७॥५८८ ॥
१. जयधचल मूल पृष्ठ २२०६ से २२१३ तक ।
२.
क० पा० सुत्त पृष्ठ ८७०-७१ सूत्र १३१९ से १३२५ । घवल पु० ६ पृष्ठ ४०४ | ३. जंयधवल मूल पृष्ठ २२१३-२२१४ ।