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________________ क्षपणासार जाया १६५ ] [ १६५ विशेषार्थ--यह कथन द्वितीयादि समयों की अपेक्षा है, क्योंकि प्रथमसमयका कथन गाथा १९२ में किया जा चुका है। उदयस्थितिसे लेकर गुणश्रेणियायाममें असंख्यातगुणित क्रमसे प्रदेशाग्र दिया जाता है और गुणश्रेणीशीर्षसे असंख्यातगुणा प्रदेशाग्न अन्त रायामकी प्रथम स्थिति में दिया जाता है । इस कथनको स्मरण कराने के लिए गाथामें कहा गया है कि अन्त रायामको प्रथमस्थितितक असंख्यातगुणतक्रमसे द्रव्य दिया जाता है, उससे अनन्तरवर्ती स्थितिसे लेकर अन्तरायामकी अन्तिमस्थितितक एक गोपुच्छवि शेषसे होन द्रव्य दिया जाता है। इसप्रकार से अन्तरायामस्थितियों में प्रदेश विन्यास होता है। अन्तरायामको चरमस्थिति के अनन्तरवर्तीस्थितिमें (जो कि पूर्व में की गई द्वितीयस्थिति में आदिस्थिति है) संख्यातगुणाहीन प्रदेशाग्र दिया जाता है अर्थात् जहां पर अन्तरायामकी अन्तिम स्थिति की और द्वितीयस्थिति सम्बन्धी आदिस्थितिको संधि होती है वहां संख्यातगुणाहीन द्रव्य दिया जाता है । अन्तरायामको स्थितियों में अपकषितद्रव्यके असंख्यातबहुभागका संख्यातवांभाग या संख्यातबहुभाग दिया जावे, किन्तु द्वितोयस्थितिसम्बन्धी स्थितियों में से मादिस्थिति में संख्यातगुणाहीन द्रव्य दिया जाता है, क्योंकि अन्तरायामस्थितियों की अपेक्षा द्वितीयस्थितिकी स्थितियां असंख्यातगुणी हैं । उसके अनन्तरवर्तीस्थितियों में गोपुच्छविशेषहीन द्रव्य अपनी अतिस्थापनावलीतक दिया जाता है। जितना द्रध्य सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानके प्रथमसमयमें अपकर्षित किया गया था उससे असंख्यातगुणे द्रव्य का द्वितीयसमय में अपकर्षण होता है उसमें से उदयस्थिति में स्तोक द्रव्य तथा द्वितीय स्थितिमें उससे (उदयस्थिति से ) असंख्यातहुणा द्रव्य दिया जाता है | प्रथमसमय के गुणश्रेणिशीर्ष से ऊपर अनन्तरस्थितितक इसी असंख्यातगुणे क्रमसे द्रव्य दिया जाता है, क्योंकि यहां पर मोहनीयकर्मका अवस्थितगुणश्रेणिआयाम है। द्वितीयसमयके गुणश्रेणीशीर्षसे अनन्तर उपरिम एकस्थिति में भी असंख्यालगुणा द्रव्य दिया जाता है, उसके पश्चात् अन्तरायामकी चरमस्थितितक विशेषहीन-विशेषहीन द्रव्य दिया जाता है । इसके अनन्तर द्वितीयस्थिति की स्थितियों में से प्रथमस्थितिमें संख्यातगुणाहीन प्रदेशपिण्ड दिया जाता है, उसके आगे अनन्तरवर्तीस्थितिसे लेकर जिस स्थितिमेंसे प्रदेशाग्र अपकर्षण किया गया था उससे एक आवलि नीचे तक असंख्यातगुणहीन क्रमसे द्रव्य दिया जाता है । इसोप्रकार तृतीयादि समयोंमें प्रदेशाग्रका अपकर्षण व नि:सिंचन होता है। द्वितोयस्थिति के समस्तद्रव्यका संख्यात बांभाग प्रथमस्थिति काण्डकको चरमफालिके लिए अपकर्षित होता है जो पूर्वोक्त विधिके अनुसार
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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