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गाथा ११४ ]
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तृतीयसंग्रहकृष्टिमें भी जाननी चाहिए। जिसप्रकार द्वितीयसंग्रहकृष्टिकी आदि अपूर्वकृष्टियोंकी जघन्यकृष्टि में एकबार असंख्यातवें भागसे विशेषअधिक प्रदेशाग्रका विन्यास होकर पश्चात् अपूर्वष्टिके अन्तपर्यन्त अनन्तवें भागहीन प्रदेशाग्र दिये जाते हैं । अपूर्वकृष्टियोंको उलंघकर पूर्व कृष्टियोंकी आदिकृष्टिमें असंख्यातवें भागहीन द्रव्य दिया जाकर अनन्तरकृष्टियों में अनन्त वें भागहीन प्रदेशान दिये जाते हैं ऐसा प्ररुपण किया गया है उसीप्रकार लोभकी तृतीयसंग्रहकृष्टिके नोचे अन्तरकृष्टियों में भी होवाधिक प्रदेशाप्र देनेका कथन करना चाहिए।
क्षपणासाय
तदनन्तर लोभकषायको अन्तिमकृष्टिसे मायाकषायकी प्रथमसंग्रहकृष्टि के नीचे द्वितीय समय में निर्वर्तमान अपूर्वकृष्टियों में जो जघन्यकृष्टि है उसमें असंख्यातवें भाग विशेषअधिक प्रदेशान दिया जाता है। इसप्रकार उपर्युक्त क्रमसे जहां-जहां पूर्व कृष्टियों की अन्तिमकृष्टिसे अपूर्व कृष्टियों की जघन्यकृष्टि कही गई है वहां-वहां असंख्यातवें भाग से विशेषअधिक प्रदेशान दिया जाता है और जहां-जहां अपूर्वकृष्टियोंको अन्तिमकृष्टि से पूर्वकृष्टियोंकी जघन्यकृष्टि कहो गई है वहां-वहां असंख्यातवेंभागसे हीन प्रदेशाग्र दिया जाता है । इस क्रम से द्वितीयसमय में निक्षिप्यमाण प्रदेशाग्रका बारह कुष्टि स्थानों में श्रसंख्यातवें भागसे हीन दोयमान प्रदेशानका अवस्थान है, क्योंकि बारह पूर्ण संग्रहकृष्टियोंके नीचे अपूर्व कृष्टियोंकी रचना हुई है इसलिए बारह अपूर्णकृष्टियों की चरमकृष्टि से बारह पूर्वसंग्रहकृष्टियोंकी जघन्यकृष्टियों में असंख्यातवें भागसे हीन प्रदेशा दिये जाते हैं, किन्तु असंख्यातवेंभाग से अधिक प्रदेशाग्र दिया जाता है, क्योंकि लोभकी प्रथमपूर्वसंग्रहकृष्टि के नीचे रचना हुई है उन अपूर्व कृष्टियोंकी जघन्यकृष्टिस्थान में अन्तिमकृष्टिसम्बन्धी संविका अभाव होनेसे अपूर्व कृष्टियोंकी पूर्व संग्रह कुष्टियों की अन्तिम कृष्टिसम्बन्धी सन्धि ११ स्थानोंमें होती है । शेषकूष्टिस्थानों में दीयमान प्रदेशाप्रका अनन्तभागसे हीन अवस्थान है । इसप्रकार द्वितीयसमय मेंदीयमान प्रदेश की यह उष्ट्रकूटश्रेणि है अर्थात् ( जिसप्रकार ऊंटकी पोठ पिछलेभाग में पहले ऊंची होती है पुनः मध्य में नीची होती है और फिर आगे नीची-ऊंची होती है, उसीप्रकार यहां प्रदेशान भी आदि में बहुत होकर फिर स्तोक रह जाता है पुनः सन्धिविशेषों में अधिक और होन होता जाता है इसीकारण यहांपर होनेवाली प्रदेशश्रेणीको रचनाको उष्ट्रकूश्रेणी कहा है ) । द्वितीयसमय में जो प्रदेशान दिखता है
जो
ग्यारह कृष्टिस्थानों में अपूर्व कृष्टियों की
जवम्यकूष्टि और पूर्व संग्रहकृष्टि की