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________________ '१०८ ] क्षपणासार [गाथा ११४ प्रथमकृष्टि में दिये जाने वाले प्रदेशानोंसे द्वितीयकृष्टि में निसिच्यमाण प्रदेशाग्र एकवर्गणाविशेष होन होते हैं । इसप्रकार तदनन्त र प्रतिकृष्टि अनन्तौभागहीन अर्थात् एकवर्गणाविशेषहोन द्रव्य तबतक दिया जाता है जबतक प्रथम संग्रहकृष्टि के नीचे द्वितीयसमयमें निर्गत मान अपूर्वकृष्टियों को अन्तिमकृष्टि प्राप्त होती है । उससे असंख्यालों भागरूप विशेषहोन द्रव्य प्रथम समय में नितित लोभकषाय को प्रथम संग्रहकष्टिको अन्तरष्टियों में से जघन्य कृष्टिमें दिया जाता है। प्रथमसमयमें कृष्टियों में दिये गये प्रदेशपिण्डकी अपेक्षा द्वितोयसमय में समस्तकृष्टियों में निसिंच्यमाण सकलप्रदेशपिण्ड असंख्यातगुणा होता है, क्योंकि अनन्तगुणो विशुद्धि के द्वारा इसका अपकर्षण हुआ है । इसलिए प्रशमसमयको जघन्यकृष्टि में पूर्व भवस्थित प्रदेशपुनको अपेक्षा द्वितीयसमयमें निर्तिमान अपूर्व चरमकृष्टि में निःसिक्त प्रदेशाग्र असंख्यातगुणे अधिक होते हैं । अतः असंख्यातवेंभागहीन द्रव्य देने से अपूर्व चरमकृष्टिके प्रदेशपुञ्जको अपेक्षा पूर्व जघन्यकृष्टि में दृश्यमान (पूर्व और नि:सिंचित) द्रव्य एकगोपुच्छविशेषसे हीन हो जाता है । अन्य संधिविशंपों में जहां-जहां असंख्यातवेंभागहीन द्रव्य देनेका कथन हो वहां भी इसीप्रकार जानना चाहिए। प्रथमसंग्रहकृष्टिमें अनन्तभागसे होन प्रदेशाग्र दिया जाता है उसके आगे प्रथम समयमें निर्वर्तित लोभकषायको प्रथमसंग्रहकृष्टिको अन्त र कृष्टियों में अनन्त र अनन्तररूपसे प्रथमसंग्रहकष्टिको अन्तिम अन्तराष्टिपर्यन्त अनन्तभागहीन प्रदेशाग्र दिया जाता है। प्रथमसमयमें हो निर्वतित लोभकी द्वितोयसंग्रहकृष्टिके नीचे द्वितीय समय में रची गई अपूर्वकृष्टियोंकी पंक्ति है । उन द्वितीयसमयमें निर्तित अपूर्व कृष्टियोंकी जघन्य कृष्टिमें दीयमान प्रदेशाग्र (प्रथमसंग्रह कृष्टिको चरमकृष्टिमें नि:सिक्त प्रदेशानको अपेक्षा) असंख्यातवेंभागसे विशेष अधिक हैं । इसप्रकार द्रव्य देनेसे पूर्वप्रथमसंग्रहकृष्टि की चरमकृष्टिको अपेक्षा इस अपूर्व द्वितीयसंग्रहकष्टिको जघन्यकृष्टि में प्रदेशपुञ्ज एकवर्गणा (गोपुच्छ) विशेषसे हीन होते हैं। आगे जहां-जहां भी पूर्वचरमकृष्टि से अपूर्वजघन्य. कृष्टि में असंख्यातवेंभागअधिक द्रव्य देने का कथन हो वहां इसीप्रकार जानना चाहिए । उसके आगे द्वितीयसंग्रहकृष्टिके नीचे निवर्तमान अपूर्वकृष्टियोंकी अन्तिमकृष्टिपर्यन्त अनन्तभागहीत प्रदेशाग्न दिया जाता है । उससे प्रयमसमयमें निर्वतित पूर्वद्वितीय संग्रह कृष्टियोंकी जघन्यकृष्टि में असंख्यातवेंभागप्रमाण विशेषहीन प्रदेशाग्र दिया जाता है। इससे आगे द्वितीय पूर्वकृष्टिको अन्तिमकृष्टि तक अनन्तवेंभागसे विशेषहीन प्रदेशाय दिया जाता है । तत्पश्चात् द्वितीयसंग्रहकृष्टि में जैसी विधि बतलाई गई है वैसी ही विधि
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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