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________________ क्षपणासार ११.] [ गाथा ११५.११७ वह जघन्यकृष्टिमें बहुत है और शेष सर्वकृष्टियों में अनातरोपनिधासे अनन्तभागहीन है। जिसप्रकार द्वितीयसमय में कृष्टियोंमें दोयमान प्रदेशाग्रकी प्ररुपणा की है उसीप्रकार सम्पूर्णकृष्टिकरणकालमें दीयमान प्रदेशाग्रके २३ उष्ट्रकूटोंकी प्ररुपणा करना चाहिए, किन्तु दृश्यमान प्रदेशाग्र सर्वकालमें अनन्तभागहीन जानना चाहिए । जो प्रदेशाग्न सामस्त्यरूपसे प्रथमसमयमें कृष्टियों में दिया जाता है वह सबसे अल्प है, उससे द्वितोयसमयमें कृष्टियोंमें दिया जानेवाला प्रदेशाग्न असंख्यातगुणा है, इससे तृतीय समय में कृष्टियों में दिया जाने वाला प्रदेशाग्र असंख्यात गुणा है। विशृद्धि में प्रतिसमय अनन्त गुणीवृद्धि होने के कारण सर्वकृष्टिकरणकाल में उत्तरोत्तर असख्यातगुणा असंख्यातगुणा प्रदेशाग्न अपकर्षणकरके कृष्टियोंमें निक्षिप्त किया जाता है । किट्टीकरणद्धाए चरिमे अंतीमुहत्तसुज्जुत्तो। चत्तारि होति मासा संजलणाणं तु ठिदिघंधो ॥११५॥५०६।। सेसाणं वस्साणं संखेजसहस्सगाणि ठिदिबंधो । मोहस्स य ठिदिसंतं अडवस्संतोमुहुत्तहियं ।।११६॥५०७॥ घादितियाणं संखं वस्ससहस्साणि होदि ठिदिसंतं । वस्साणमसंखेज्जसहस्सारिण अघादितिएणं तु॥११७॥ कु.५०८॥ अर्थ- अन्तर्मुहूर्तप्रमाण कृष्टिकरणकालके अन्तिमसमयमें अन्त मुहूर्त अधिक चारमासप्रमाण संज्वलनचतुष्कका स्थितिबन्ध है । यह स्थितिबन्ध अपूर्वस्पर्धककरणकालके चरमसमय आठवर्षप्रमाण था सो एक एक स्थितिबन्धापसरणमें अन्तमुहर्तप्रमाण घटकर इतना अवशेष रहता है । शेष कोका स्थितिबन्ध संख्यातहजारवर्षमात्र है, पूर्व में भी संख्यातहजारवर्षमात्र ही था सो संख्यातगुणहीन क्रमरूप संख्यातहजार स्थितिबन्धापसरण हो जानेपर भी आलापसे इतना ही कहा है तथा मोहनीयकर्मका स्थितिसत्त्व पहले संख्यातहजारवर्षप्रमाण था सो घटकरके यहां अन्तमुहर्त अधिक आठ १. जयधवल मूल पृष्ठ २०५६ से २.६४ तक । २. इन गाथाघोंसे सम्बन्धित विषय क. पा० सुत्त पृष्ठ ८०३-४ सुत्र ६७३ से ६७७ तक आया है। धवल पु० ६ १ ३८० | जयधवल मूल पष्ठ २०६४ ।
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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