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________________ ८८] [ माथा १०४ विशेषार्थ--अन्तरायामका संख्यातवां भाग उपशम सम्यक्त्व का काल है । उपशम सम्यक्त्व का काल समाप्त हो जाने पर भी अन्तरायाम का संख्यात बहभाग शेष रहता है जहां पर दर्शनमोहनीय कर्म के सत्त्व का भी अभाव है। अन्तरायाम के ऊपर द्वितीय स्थिति में दर्शनमोहनीय कर्म का द्रव्य है जिसका अपकर्षरग करके अन्तरायाम को पूरता है । अर्थात् शेष अन्तरायाम काल में अपकरित द्रव्य का क्षेपण करके दर्शनमोहनीय कर्म का सत्त्व स्थापन करता है । मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन तीन प्रकृतियों में से जिस प्रकृति का उदय प्रारम्भ हो जाता है उस प्रकृति के द्रव्य को उदय स्थिति से लेकर सर्व स्थितियों में देता है और जिन दो प्रकृतियों का उदय नहीं है उनके द्रव्य को उदयावलि से बाह्य सर्व स्थितियों में देता है, किन्तु उदयावलि में नहीं देता । इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी प्रतिस्थापना में तीनों प्रकृतियोंका द्रव्य नहीं दिया जाता । यदि मिथ्यात्व प्रकृति का उदय होता है तो यह जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है। यदि सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति का उदय होता है तो सम्यग्मिथ्यादृष्टि हो जाता है । सम्यक्त्वप्रकृति के उदय होने से यह जीव वेदक सम्यग्दृष्टि अथवा क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि हो जाता है। ओक्कट्टिदइ गिभागं समपट्टीए विसेसहोणकमं । सेसासंखाभागे विसेसहीणेण विवादि सम्वत्थ ॥१०४॥ अर्थ-अपकृष्ट द्रव्य का एक भाग तो चय (विशेष) हीन क्रम से उदयावलि में देना शेष असंख्यात बहुभाग सर्वत्र विशेष (चय) हीन क्रम से दिया जाता है । विशेषार्थ-यदि उदयरूप सम्यक्त्वप्रकृति होवे तो उसके द्रव्य में अपकर्षण भागहारका भाग देकर उसमें से बहुभागप्रमाण द्रव्य यथावस्थित ही रहे । एक भाग को असंख्यातलोकका भाग देकर उसमें से एकभागप्रमाण द्रव्य 'उबयावलिस्स बन्'२ इत्यादि सूत्र द्वारा जैसा पूर्वमें विधान कहा था वैसे ही उदयावलिके निषेकोंमें चय हीन क्रमसे निक्षिप्त करना। अपकर्षित द्रव्यमें से अवशिष्ट बहुभागमात्र जो द्रव्य है उसे १. २. ज.ध. पु. १२ पृ. ३१५ के आधार से ! क. पा. सुत्त पृ. ६३५; घ. पु. ६ पृ. २४१ । ल. सा. गा.७१।
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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