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गाथा ३१४] क्षपणासार
[ २५७ ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन धातियाकर्मोका अन्तर्मुहूर्त, नाम व गोत्र कर्मका ३२ मुहूर्त एवं वेदनीयका ४८ मुहूर्त मात्र स्थिति बन्ध जानना, क्योंकि पारोहक-सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समयमें जो स्थितिबन्ध होता है उससे अवरोहक सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समयमें दुगुणा स्थितिबन्ध है। उपशमश्रोणि चढ़नेवालेको प्रारोहक और उतरनेवालेको अवरोहक कहते हैं ।'
गुणसेढीसत्थेदररसबंधो उक्समादु विवरीयं ।
पाप्नो किडीयानभासा विरतमाहियकमा ॥३१४॥
अर्थः-तदनन्तर समय में ( द्वितीयादि समयोंमें ) अवरोहकके गुण रिण अपकृष्ट द्रव्य, प्रशस्त व अप्रशस्तप्रकृतियोंका अनुभागबन्ध आरोहकसे विपरीतक्रम लिये होता है । प्रथम समय में जितनी कृष्टियों का उदय होता है, द्वितीयादि समयों में उसके असख्यातवेंभाग विशेष अधिक क्रमसे उदय होता है।
विशेषार्थ-अवरोहक ( उतरनेवाला ) सूक्ष्मसाम्परायके द्वितीयादि समयों में प्रतिसमय प्रथमसमय सम्बन्धी द्रव्यसे असंख्यातगुणा हीन क्रमयुक्त द्रव्य अपकर्षित करके गुणश्रेणि करता है । सातावेदनीयादि प्रशस्त प्रकृतियों का अनन्तगुणा हीन क्रम लीये और ज्ञानावरणादि अप्रशस्त प्रकृतियोंका अनन्तगुणा बढ़ता क्रम लोये अनुभागबंध होता है, क्योंकि यहां प्रतिसमय विशुद्ध व संक्लेशको यथाक्रम अनन्तगणो हानि ब वृद्धि होती है । इसलिए उपशमश्रेरिण पर आरोहण करते समयसे उत्तरते समय विपरीतपना कहा है। स्थितिबन्ध तो प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त समान ही है। प्रत्येक अन्तर्मुहूर्त में प्रारोहकके स्थितिबन्धसे अवरोहकके यथास्थान दुगुणा स्थितिबन्ध सूक्ष्म साम्परायके अन्तिम समय पर्यन्त जानना । चढ़ते हुए जिस स्थानपर जितना स्थितिबन्ध होता था उससे दूना स्थितिबन्ध उसी स्थानपर उतरते हुए होता है। जैसे चढ़ते समय स्थितिबन्धापसरए द्वारा स्थितिबन्ध घटाकर एक-एक अन्तर्मुहूर्तमें समान बन्ध करता था वैसे ही यहां स्थितिबन्धोत्सरण द्वारा स्थितबन्ध बढ़ाकर एक-एक अन्तर्मुहूर्त में समानबन्ध करता है । अवरोहक सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समय में उदयरूप जो निषेक कृष्टि पाई जाती है उसको पल्यके असंख्यातवें भागका भाग दिया उसमेंसे बहुभाग
१. ज. घ. मूल पृ. १८६३-६४ सूत्र ३६४; प. पु. ६ पृ. ३१८-१६ ।